[ कालिदास की ययाहिकी कवितो।
हो पा ? इस पद्य को प्रात्मा, इसका प्राण, इसका जीवन "श्रीप्रिया लोकफलोहि पेप:-यह इसका चौथा चरण है।
इस प्रकार वसन-भूषणों से सजित पाती को उसकी माता मेना ने माना दो कि यह नगर की सौभाग्यवती त्रियों को प्रणाम करे। प्राक्षानुसार पार्वती ने उनके सामने सिर मुकाया। इस पर कालिदास ने यह कविता की---
प्रसारिहतं प्रेम बमस्त पत्यु
रिटयुध्यते साभिरुमा स्म नना।
तया तु तपाईशरीरमाता
परचारहताः स्निग्धजनाशिषोऽपि ।
त्रियों को त्रियाँ प्रायः इस तरह के माशीर्वाद देती है, "चिरजीय", "चिरसौभाग्यवती भव", "अएपुत्रा भव" । परन्तु उनके लिए इन सब से अधिक प्यारी आशीप "पति- प्रेयसी भर है। खियों के लिए पति की प्रेयसी होने से पढ़कर और कोई सुख नहीं-और कोई प्राशीष नहीं । सौभाग्ययती होकर भी, अष्टपुत्रा होकर भी, सम्मय है, सियों पति-प्रेयसी न हो। पति उनसे निर्यिशंप नमन रखे। इसीलिए महाकवि यदुधा यही पिछली पाशीष त्रियों को देते हैं। यही कारण है जो तुलसीदास ने कहा है---
होहु सदा तुम पियहि पियारी।
चिर पहियात असीस हमारी