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पालिदास

जर पायंती का पयाहिक क्षार हो चुका तर उसने पाने में अपना मुप्त देगा। इस पर महाकविजी कहते हैं।

मामानमाणोप यशोममान

मारागिब स्तिमितायताची।

रोषपाने सरिता यभूत

वीणां रियालो फलोहिये।

अपने शोभाशाली रूप को निश्चल नयनों से आईने में देखकर मार की प्राप्ति के लिए पार्वती यहुत ही व्यन हो उठी। उसकी उत्सुकता यहाँ तक यह गई कि उसने तत्काल ही अपने भापी पति शहर के सामने जाने की प्रमिलापा मन में प्रकट की। उसी रात को उसका पाणिग्रहण था। परन्तु उस समय तक ठहरना उसे नागवार हुश्रा। सच है, सिर्फ अपने प्रियतम के देखने के लिए ही वेशभूपा का आडम्बर किया जाता है। उसी फल के पाने की अभिलापा से रूप- प्रसाधन का परिश्रम स्त्रियाँ उठाती हैं। यदि उसकी प्राप्ति न हो तो यह परिश्रम ही व्यर्थ जाय। इससे यह सूचित हुधा कि और किसी निमित्त यह रचना नहीं और यदि हो भी तो घह व्यर्थ है। पयोंकि पार्वती के समान त्रैलोक्यमोहिनी नारी का एक-मात्र फल जय अपने ऊपर अपने प्रेममूत्ति

पति की एक दृष्टि पड़ जाना ही है तव प्रारत स्त्रियों की यात

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