[ कालिदास की वैवाहिकी कविता।
संस्टत-पद है। परन्तु इस इतने छोटे पद के पेट में एक मही, अनेक घ्यंग्य भरे हुए है। और ये यहुत गूल भी नहीं हैं। ऐसे है जिनका स्वाद सामान्य जन भो सहज में ले सकते हैं। पर कालिदासजी हमको माफ करें, हमें यहाँ पर एक शिकायत है। पार्वती की एतत्कालीन चेटा-वर्णन में हमें एक बात की कमी मालूम होती है। यहाँ पर "निर्वचनं" (चुपचाप) के मागे “सस्मितं" "सभ्रभंग" या "कुटिलेक्षणम्" के सघश किसी क्रिया-विशेषण की पड़ी आयश्यकता थी। “निर्यचन" चाहेन भी होता, पर इनमें से एकाध विशेषण होना चाहिए था। सारे सरस, सहदय और काथ्य-कर्मश जन इसके प्रमाण हैं। ऐसे अवसर पर सम्भव नहीं कि स्मित या भ्रमत न हो। रघुवंश में कुछ कुछ एक ऐसे ही मौके पर खुद कालिदास ही ने “यधूरस्याकुटिलं ददर्श"-कदा भी है। स्वयंवर में इन्दुमती ने अज-कुमार फो पसन्द किया। यह यात इन्दुमती पो सपी सुनन्दा ताष्ट्र गई। तब उसने इन्दुमती से दिल्लगी की। उसने कहा- प्रप भाप यहाँ इस राजकुमार के सामने पड़ी पश कर रही हो। घलो, और किसीको देखें। यह सुनतेही इन्दुमती ने सुनन्दा को तिरछी नज़र से देखकर प्रसूया मकर की। ऐसा ही कोई अनुभाय यहाँ भी होता तो पण
ही मचा होता।