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[कालिदास की वैवाहिकी कविता।

फमलों के दलों को यह सिर्फ गिन रही थी। कैसी अद्भुत कविता है! कैसा अद्भुत भाव है। मन में उत्पन्न हुए यानन्दातिशय को छिपाने की कोशिश करके भी पाब्बती ने कमल-दलों को गिनकर उसे स्पष्ट प्रकट कर दिया। उस समय जो विकार पार्वती के हृदय में उद्भूत मुए थे उनको शब्द-द्वारा पतलाने की यदि हज़ार कोशिरों को जाती तो- भी उस शब्द-चित्र में यह रसानुभव न होता जो इस निरर्थक कमलगणना की उक्ति से हुआ है। सिर्फ महाकवि ही ऐसी उक्तियों कह सकते हैं।

स कविता-प्रसङ्ग से यह पात चित होती है कि कालिदास के जमाने में तरुण लड़कियाँ माता-पिता के पास, याहरी आदमियों के सामने भी, निस्सकोच पैठती थी और अपने विवाह तक की भी यातें चुपचाप बैठो सुना करती थी, उठ न जाती थी। इससे एक पात यह भी सिद्ध होती है कि उस समय पर या पर-पक्षयाले भी कन्या की याचना करते थे। राजपूतों में इस रीति को बन्द हुए अभी यहुत समय नहीं हुआ। शायद उनमें यह रीति यस्ता प्रचलित हो। परन्तु शङ्कर के मुंह से “याचितय्यो हिमालयः"यह यात निकलते ज़रा सटकती है। यदि हिमवान् सुद याचना करते तो परा हानि धी?

कुछ समय दुश्मा, हमें विवाह-समारम्भ-सम्यधिनी

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