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कालिवाम।

है। उसे पढ़ने से कधि के य की कोमनता का बहुत फुए पता लगता है। युद्ध-यणन में अपनी विश्वविमोहिनो फापना की स्थामायिक लीला दिनाने में कालिदास समर्थ मही हुए। परिषय में कविगुरु पास्मोकि ही सिख-हस्त थे। उन्दोंने ऐसे प्रसनों में जैसा प्रभुत रचना-कोयल दिखाया सामन्यत्र दुर्लभ है"

मर्यात् मारकी सम्मति में कालिदास को युद्ध का अच्छा पणन करना न माता पा! मालविकाग्निमित्र के पिषय में भी आपने एक जगह प्रतिकूल राय दी है। लिला है कि इसमें कालिदास अपनी स्यामाविक और उन्मादिनी पर्णना करने में समर्थ नहीं हुए-प्रथया उन्हें इस तरह का वर्णन करने के लिए अयसर ही नहीं मिला।

विक्रमोर्यशी के विषय में प्राप लिखते हैं-

“विक्रमोर्वशीय आद्योपान्त शकुन्तला की तरह सान-सुन्दर नहीं। उसमें भादर्श-रमणी-चरित्र-प्रदर्शन तो कालिदास कर सके हैं। पर प्रादर्श पुरुष की सृष्टि नहीं कर सके। शायद उन्हें वैसा करना अमोष्ट ही न था।"

अर्थात् राजा पुरुरवा का जो चित्र कालिदास ने विक्रमोर्वशीय में खींचा है यह निकला नहीं।

- मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीय के विषय में,

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