[ कालिदास के प्रन्यों की मालोचना !)
विलाप को और तरह से लिखकर पूर्व दोष को रघुवंश में : नहीं श्राने दिया।
मेघदूत के अन्यान्य अंशों को प्रशंसा करने के बाद विद्या-भूपण जी लिपते हैं-
"मेघदूत में कोई ऐसा प्रादर्श-चरित नहीं जिससे , कोई लोक-हितकर या समाज-हितकर शिक्षा मिल सके। राम, सीता और दुष्यन्त-शकुन्तला के श्रादर्श-चरित्र से समाज का यहुत कुछ उपकार-साधन हो सकता है। परन्तु मेघदूत के यक्ष और यक्ष-पत्नी के चरित्र से उस तरह का कोई उच्च उद्देश सम्पन्न नहीं हो सकता"।
ऋतुसंहार में सृष्टि-नेपुण्य नहीं। अतएय उसे विधा-भूषण जी प्रधान काव्य नहीं मानते। सृष्टि विषयक चातुर्य ही को श्राप काव्य का जीवन मानते हैं। अतपय और सय यातो के होने पर भी जिस काव्य में यह गुण नहीं उसे प्रायः निर्जीय हो समझना चाहिए ।
राजेन्द्रनाथ महोदय अपनी पुस्तक में एक जगह लिखते हैं-
रघुवंश के सातवे सर्ग के अन्त में, इन्दुमती कोम पाने के कारण निराश हुर अपरापर राजानों के साथ महा-
कवि कालिदास ने इन्दुमती-पालभ अज का युर वर्णन किया