[कालिदास के ग्रन्थों की मालोचना।।
पर्द रहता है। जो लोग याहरी सौन्दर्य के बीच में वर्णनीय पदार्य को स्थापित करके, इसी बाहरी सौन्दर्य के प्रकाश- द्वारा उसे प्रकाशित करते हैं उनका काम भी उतना दुष्कर नहीं। किन्तु जो कधि पाहरो सौन्दर्य को दूर रखकर, वर्णनीय वस्तु के केवल भीतरी भाग पर दृष्टि रखता है- वेश-भूषा के विषय में उदासीन रहकर भूपित व्यक्ति के हृदय की ही तरफ दृष्ट्रि-क्षेप करता है अर्थात् जो एक सम्पूर्ण विराट् मूर्ति को सृष्टि करके तद्द्वारा समाज को शिक्षा देना चाहता है---उसका पासन पड़ा ही समस्या-पूर्ण समझा जाता है। उसे यात यात पर, पद पद पर, अक्षर अक्षर पर, समाज की अवस्था की भावना करनी पड़ती है- लोकहितैषणा से प्रणोदित होना पड़ता है। जो बात समाज के लिए अमगराकर है, जिसकी आलोचना से समाज का प्रत हित-साधन नहीं होता. उसका यह परित्याग करता है। इसीसे हमारे प्रार्य-साहित्य में लेडी मैक्येय और ग्रोयेलो का चित्र नहीं पाया जाता। जिस वस्तु का साथ उत्तम है--जो सर्यथा सत् है-उसीको सृष्टि होनी चाहिए।
महाकवि कालिदास के श्रेष्ठ कान्य, प्रथया संस्कृत- भाषा के सर्वश्रेष्ठ महाकाय, रघुवंश के प्रत्येक अक्षा में यह सत्य विद्यमान है। लोकशिक्षोपयोगी यातों से रपयंश
सायन्त परिपूर्ण है। देवता और ब्राह्मण में भक्ति, गुरु के