कालिदास ।
सकता। समुद्र के किनार येठकर अस्तगमनोन्मुप सूर्य की शोमा देखना पहुत ही प्रानन्द-दायक रश्य है। पर्चत के शिखर से अधोगामिनी नदी या अघोदेशानिनी हरितयसना पृथ्वी का दर्शन सचमुच यड़ा ही बाल्हादकारक व्यापार है। अपनी प्रतिमा के यल पर कवि इन दोनों प्रकार के श्यों की तत् मूर्तियाँ निर्मित कर सकता है। परन्तु उनके अब- लोकन से क्षणस्थायी प्रानन्द के सिवा दर्शकों और पाठकों का और कोई हितसाधन नहीं हो सकता। उससे कोई शिक्षा नहीं मिल सकती। जिस सृष्टि से आमोद-प्रमोद के अतिरिक्त और कोई लाम नहीं यह काय उत्कृष्ट नहीं। संसार में ऐसे संख्यातीत पदार्थ हैं जिनसे क्षण भर के लिए वित्त विनोद- पूर्ण हो सकता है दृदय को आल्हाद प्राप्त हो सकता है। फिर काव्य की क्या आवश्यकता ? अतएव स्वीकार करना पड़ेगा कि पाठकों के आमोद-विधान के सिवा काव्य का और भी कुछ उद्देश है। परन्तु यह उद्देश काय-शरीर के अन्तर्गत इतना छिपा हुआ होता है कि पाठकों को उसकी उपलब्धि सहसा नहीं होती। देवशकि जिस प्रकार महात- भाव-पूर्वक अपना काम करती है उसी प्रकार कवि का गढ़ उद्देश भी पाठकों के हय पर असर करता है, पर उनको उसके अस्तित्व की कुछ भी ख़बर नहीं होती। इस प्रकार
का गूढ़ उदय पाठकों के अन्तःकरण में चिरस्थायी संस्कार