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[ कालिदास के ग्रन्थों की पालोयना।

इस प्रात्म-त्याग के अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। यदि कवि अपने काव्य में इस यात्म-त्याग की उत्तम मूर्ति दिखा सके तो उसका काव्य निस्पन्देह बहुत ही हृदयहारी हो। किन्तु प्रात्म-त्याग के जैसे दृष्टान्त संसार में दृष्टिगोचर होते हैं उनकी अपेक्षा यदि कवि ऐसे दृष्टान्नों को अधिकतर मनोस पना सके तो उसकी सृष्टि स्वाभाविक सृष्टि की अपेक्षा अधिक चमत्कारिणी और पाल्हाद-दायिनी हो। इस चमत्का- रिणी कवि-सृष्टि में यदि कुछ भी स्वभाव-विरुद्ध, अर्थात् अस्वाभाविक, न होगा तभी वह सृष्टि सोश में निरपध होगी। स्वभाव में जो यात सोलह प्राने पाई जाती है उसे कवि अठारह पाने कर सकता है। परन्तु स्वभाव में जिस यस्तु का अस्तित्व एक पाना भी नहीं उसपी रचना करने से यही सूचित होगा कि कपि में नैपुण्य का सर्वथा अभाव था। समारानुरूप चरित्र-सष्टि करने से भी कवि की तारा प्रशंसा नहीं। कोकि ऐमी सृष्टि से कवि-सधि का उत्कर्ष नहीं सूचित होता। उससे समाज का उपकार नहीं हो सफता। जो व्यवहार हम लोग प्रतिदिन संसार में अपनी आँखों से देखते हैं उन्होंका प्रतिविम्ब यदि कवि-सटि में देखने को मिला - उन्हींका यदि पुनदर्शन प्राप्त हुआ-तो उसमें विशेषता ही पा हुई जिस काव्य से संसार का

उपकार-साधन न हुआ यह उत्तम काय नहीं कहा जा

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