फासिवाम।]
घरपटल पर उतनो अति नहीं होती प्रितनी करियों के शिक्षायें होती हैं। मीति से सम्बन्ध रखनेवाले प्रन्यों में सच योलने की महिमा जगह जगह पर गाई गई है। पर उसका असर उतना नही होता जितना कि कविवर्णित हरिचन्द्र के चरित से होता है। राजा का सर्यप्रधान कल्य प्रजारजन है। पुरापदि में हजारों जगह इसका उल्लेख है। पर ऐसे विधि-निषेधात्मक उल्लेखों की लोग ताश परवा नहीं करते। फेयल प्रजा को सन्तुष्ट रखने के लिए, निष्फलक जानकर भी, जय सीता का परित्याग रामचन्द्र के द्वारा किया जाना हम रघुवंश में पढ़ते हैं तब वही पात हमारे हृदय में पत्थर की लकीर हो जाती है। कवि यह नहीं कहता कि यह काम करना अच्छा है और यह काम करना बुरा। वह इन बातों के चित्र दिखलाकर उनके द्वारा समाज-हितकारिणी शिक्षा देता है। पति का अनुचित प्राचरण देखकर भी श्रादर्श सती त्रियाँ उसकी प्रतिकूलता नहीं करती। वे पति के सुख को अपना सुख समझती हैं। आन्तरिक वेदना सहने पर भी पति से कठोर और कोप-प्रदर्शक व्यवहार नहीं करती। इस लोकोपकारिणी शिक्षा को करि महारानी धारिणी, औशीनरी और शकुन्तला के चरित-सम्बन्धी शब्द-
दिखलाकर देता है, और ऐसी शिक्षा का असर अन्य से दी गई शिसा की पेला और प्रतिरोता