[कालिदास को विद्वत्ता
की और उनको प्रवृत्ति अधिक थी, तथापि घे पूरे येदान्ती थे। येदान्त के तत्वों को घे अच्छी तरह जानते थे। ईश्वर और जीव, माया और ब्रह्म, प्रात्मा और परमात्मा के सम्यन्ध को ये पैसा ही मानते थे जैसा कि शङ्कराचार्य ने, पीछे से माना है। ईश्वर की सर्व-व्यापकता भी उन्हें मान्य थी। अभिशान-शाकुन्तल का पहला ही श्लोक -"या सृष्टिः स्रष्टुराद्या"-इस यात का साक्षी है। इसमें उन्होंने यह यात स्परता-पूर्यफ स्वीकार की है कि ईश्वर की सत्ता सर्वत्र विद्यमान है। परमात्मा की अनन्तता का प्रमाण इस श्लोक में है-
तां तामवस्था प्रतिपद्यमानं स्थित दश व्याप्य दिगो महिम्ना।
विष्योरिशास्यानधारणीयमीदृत्तया स्पमियतया वा ॥
पुनर्जन्म प्रथया यात्मा की अविनश्वरता का प्रमाण रघुवंश के निम्नोद्धृत पधार्ध में पाया जाता है-
मरणं पातिः शरीरिणां विकृतिजीवनमुख्यते पुषैः ।
कालिदास की योग-शास्त्र सम्बन्धिनी विशता उनकी इस उक्ति से स्पष्ट है-
तमसः परमापदव्ययं पुरुष योगसमाधिना रघुः ।
माया का प्रावरण हट जाने और सश्चित कर्म क्षीणता को प्राप्त हो जाने से प्रारमा का योग परमात्मा से हो
जाता है। यह येदान्त-सत्य है। इसे कालिदास जानते थे।