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[कालिदास के समय का भारत ।

फालिदास के समय में शिल्प-कलायें खूब उन्नत थी। इससे प्राकृतिक सौन्दर्य-दर्शन की चाह घहुत यद गई थी। पहाड़ों और जङ्गलों की शोभा, भीलों और नदियों को रमणीयता, पशुओं और पक्षियों के जीवन की मोहकता पर लोग मुग्ध होने लगे थे। इसके सिवा यौद्धमत के प्रभाव से लोग मृतों, लतानी और पहाड़ों को भी जीवधारी समझने और पशु-पक्षियों में भी भ्रातृभाव की स्थापना करने लगे थे। इन कारणों से कालिदास को सौन्--वर्णन में यदुत सहा- यता मिली। उन्होंने अपने पूर्व कवि-कौशल से अनूठे अनूठे पौराणिक दृश्यों पर नये नये पेलबूटे काढ़कर उनकी सुन्दरता और भी बढ़ा दी। ऑग्य, कान, नाक, मुंह, आदि जानेन्द्रियों की तृप्ति के विषय, तथा कल्पना और प्रवृत्ति, यही पाते काव्य-रचना के मुख्य उपादान हैं। कालिदास ने इन सामग्रियो से एक आदर्श-सौन्दर्य की सृष्टि की है। कालिदास के कार्यो मे स्वर्गीय सौन्दर्य की प्रामा झलकती है। यहाँ गभी विषय सौन्दर्य के शासन के अधीन है। धार्मिक भाव और बुद्धि भी मौन्दर्य-शासन में रक्खी गई है। परन्तु, इतने पर भो, कालिदास की पविता प्रन्यान्य सौन्दर्य-उपासना- कवितात्री के स्वाभाविक दोषों से पची हुई है। अन्य करितामों की तरह उनकी कविता

धीरे धीरे कमजोर नहीं होती गई। उसमें दुराचार की

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