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[ फालिदास के विषय में जैन पंडितों को एक निर्मल कल्पना ।

उसे कोई यात उनमें भ्रमपूर्ण मालूम होती है तो भी वह पहुधा उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखकर चुप रह जाता है। इससे भ्रम का विस्तार और भी बढ़ता है। यही समझकर इस भ्रममूतक प्राख्यायिका के विरुद्ध इतना लिखने की आवश्यकता हुई। जैन पण्डित अपने प्राचार्यों की अपने सिद्धान्तों की, अपने प्राथों की खुशी से प्रशंसा करें। यह यात वे जैनेतरों की निन्दा न करके भी कर सकते हैं । जिनसेनाचार्य से कालिदास का दर्प-दान न कराकर भी पे प्राचार्य महाराज की मनमानी स्तुति कर सकते हैं। प्राचीन जैन परिडत जैनेतर विद्वानों के लिए “भट्टा निशाटा इव" इत्यादि वास्य जो लिख गये हैं वही बहुत हैं। अधिक निन्दा करने की क्या आवश्यकता ?


हाँ, एक थात कहना हम भूल ही गये। जैन- सिद्धान्त-भास्कर के सम्पादक कालिदास और जिनसेना- चार्य को सचमुच ही समकालीन समझते हैं। इस विषय के “पूरे प्रमाण" भी उनके पास मौजूद हैं। उन्होंने अपने भास्कर के प्रथम भाग की प्रथम किरण में लिखा है- “यदि हो सकेगा तो भास्कर के अगले भर में कवितर कालिदास और भगवार्जिन-सेनाचार्य की समकालीनता “पूरे प्रमाण के साथ हम प्रकाशित करेंगे।"

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