[पालिदाय का माथिर्माय-काल । तई ना पाने मालूम हुई है सब का समायेश मापने इस पुस्तक में किया है। पुन्तक उत्तम हुई है। उसे देकर भारतवासियो पो लत्रित होना चाहिए। पॉकिपड़े पड़े उपाधिधारी भारतयासी संस्कृत के अद्वितीय माता होकर भी, संस्कृत का इतिहास लिखने का प्रया नहीं करते। और, यदि संस्स्त-सम्बन्धी कोई लेप, पुस्तक, या अनुपाद लिखते भी है तो अंगरेजी में लिखकर अंगरेजी भाषा को गन्दी पनाते हैं। अपनी मातृभाग लिम्रते उन्हें शरम लगती है। हिन्दी जाननेवाले लाखों-करोड़ों भारतवासियों को, संस्कृत में दिप पड़े हुए अनेक उज्वल रसों का प्रकाश दिवाने की ये ज़रूरत नहीं समझते। जरूरत समझते हैं ये देशी और विदेशी अँगरेज़ी महानुभावों को अपने विद्वत्त्व- मफाश फी चमदिगने की। अध्यापक मेकडानल ने अपना इतिहास पक्षपात- रहित होकर लिखा है। जहाँ तक उन्हें प्रमाण मिला है, निडर होकर उन्होंने पाश्चात्य देशों को, विद्या, विज्ञान और कला-कौशल में भारत का ऋणी पताया है। प्राचीनों पर नवीनता का आरोप परयाही से नहीं किया। सापकी पुस्तक में एक बहुत बड़ी बात यह देखने में आई कि श्रापने .किसी भी विषय का विचार करते समय उद्दण्डता नहीं की, शालीनता ही दिखाई है। काव्यों के विषय में एक जगह श्राप लिखते हैं-
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