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[कालिदास के विग्य में जैन पंडितों की एक निमूल फल्पना। समासु समातासु शकानामपि भूभुजाम् ॥ अतएप सिद्ध है कि कालिदास ६३४ ईसवी से पहले के हैं। फिर यतलाइए, ८१४ ईसवी में पायाभ्युदय को समाप्त करनेवाले जिनसेन के समकालीन ये कैसे हो सकते हैं। जिनसेन के कोई ५०० वर्ष याद पाश्र्थाभ्युदय के टीकाकार हुए हैं। उन्होंने पूर्वोक्त आख्यायिका को योही किसीसे सुनकर विक्रम और कालिदास, अकबर और पीरबल, की कहानियों की तरह लिख दिया है। यह समय ऐतिहासिक खोज का न था। बड़े बड़े कवियों और पण्डितों के सम्बन्ध की कहानियाँ धीरे धीरे कुछ का कुछ रूप प्राप्त कर लेती थी। लोग उनके सत्यासत्य का निर्णय किये बिना ही उन्हें एक दूसरे से कहा करते थे। पण्डिताचार्य योगि- राट् की कही हुई पूर्वोक्त कहानी भी ऐसी ही जान पड़ती है। कालिदास के पद्यों को पार्श्वभ्युदय में गुम्फित देखकर किसीने यह किस्सा गढ़ लिया होगा। टीकाकार महाशय के कान तक यही परम्परा से पहुँचा होगा। यदि टीकाकार का कथन सच होता तो जिनसेनाचार्य स्वयं ही उसका उल्लेख कर सकते थे। पतु उन्होंने पाश्चाभ्युदय के अन्त में सिर्फ इतना ही लिखा है- १०५