कालियाग। धीमम्मरयां मरकसमयानामनामी यहन्या योगशास्तिमिनतरया तस्थियांसं निदया। पायंवरया नमामि विहरण्यदयैरण ग्यः कचित् कान्ता-विरदगुरुणा स्याधिकारममसः ।। धमी तरह मार मेयत के याघार पर, यह पार. भ्युदय नामक काव्य, चार सगों में, समाप्त किया गया है। अन्त में इसके फां, जिनमेन, ने लिया है- श्रीयीरसेनमुनिपादपयोजमाः श्रीमानमूद्विनयसेनमुमिगरीयान् । तपोदितेन जिनसेनमुनीश्यरेण । काव्यं प्यचापि परिवेष्टितमेघदूतम् । अर्यात् पोरसन मुनि के शिष्य विनयसेन की प्रेरणा से जिनसेन ने इसकी रचना की। जिनसेन भी वीरसेन के शिष्य थे। इस कारण जिनसेन और विजयसेन गुरु-भाई हुए। अच्छा, विनयसन ने पयों ऐसी प्रेरणा की ? अनुमान से मालूम होता है कि विनयसेन को मेघदूत बहुत पस द अाया। परन्तु विरक्त होने के कारण उन्हें उसका विषय, जो हाररस से परिप्लुत है, अच्छा न लगा। उन्होंने शायद सोचा कि ऐसा अच्छा काव्य यदि किसी जैन तीर्थकर पर घटा दिया जाय तो घटानेवाले के कवितांचातुर्य का भी प्रकाशन हो जाय और यह फाय जैन साधुओं के
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