पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/७८

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उत्पादक पूंजी का परिपथ ७७ 1 , है - तो पूंजी के इस पुनरुत्पादन के साथ श्रमिकों का और वढ़ा हुआ व्यक्तिगत उपभोग भी चल सकता है (और इसलिए बढ़ी हुई मांग भी), क्योंकि यह प्रक्रिया उत्पादक उपभोग द्वारा प्रारम्भ तथा क्रियान्वित की जाती है। इस प्रकार यह सम्भव है कि वेशी मूल्य के उत्पादन में बढ़ती हो, और उसके साथ पूंजीपति के व्यक्तिगत उपभोग में बढ़ती हो, पुनरुत्पादन की सारी प्रक्रिया विकासशील अवस्था में हो, फिर भी मालों का एक बड़ा भाग केवल ऊपरी तौर पर उपभोग के दायरे में पाया हो, जव कि यथार्थ में वे विक्रेताओं के यहां अनवेचे पड़े हों, दरअसल वाज़ार में अब भी रखे हुए हों। अब मालों के एक प्रवाह के बाद दूसरा प्रवाह आता है, और अन्त में पता चलता है कि पहलेवाला प्रवाह केवल ऊपरी तौर पर ही उपभोग में समाया हुआ है। माल पूंजियां बाजार में जगह पाने के लिए एक दूसरे से होड़ करती हैं। बाद में आनेवालियों को विकना है, तो उन्हें कम क़ीमत पर विकना होगा। पहलेवाले प्रवाहों का निपटारा नहीं हुआ, लेकिन उनकी अदायगी का समय आ पहुंचा। उनके मालिक अपने दिवालियेपन की घोषणा करें या अपना दायित्व पूरा करने के लिए उन्हें किसी भी भाव वेच दें। मांग की वास्तविक स्थिति से इस विक्री का कोई भी सम्बन्ध नहीं होता। इसका सम्बन्ध केवल अदायगी की मांग से होता है, इस तीव्र आवश्यकता से होता है कि मालों को द्रव्य में रूपान्तरित किया जाये। तब संकट फूट पड़ता है। वह उपभोक्ता मांग की प्रत्यक्ष घटती के रूप में, व्यक्तिगत उपभोग की मांग की प्रत्यक्ष घटती में दिखायी नहीं देता, वरन पूंजी से पूंजी के विनिमय की घटती के रूप में, पूंजी की पुनरुत्पादन प्रक्रिया की घटती के रूप में दिखाई देता है। द्र अपना द्रव्य पूंजी का कार्य करने के लिए, उस पूंजी मूल्य का कार्य करने के लिए, जिसका उत्पादक पूंजी में पुनःरूपांतरण पूर्वनिश्चित है, उ सा और श्र मालों में रूपांतरित होता है। यदि इन मालों को अलग-अलग शर्तों पर ख़रीदा जाये या उनकी अदायगी की जाये, जिससे द्र मा क्रय और अदायगी की क्रमवद्ध क्रियाओं की शृंखला बन जाती है, तो द्र का एक अंश द्र मा क्रिया पूरी करता है, जव कि दूसरा भाग द्रव्य रूप में बना रहता है और द्र मा की सहकालिक अथवा क्रमिक क्रियाएं तव तक संपन्न नहीं करता कि जब तक स्वयं इस प्रक्रिया की परिस्थितियां ही यह निर्धारित न करें। इस भाग को केवल अस्थायी तौर पर ही परिचलन में आने से रोका रखा जाता है, ताकि वह उचित समय पर क्रियाशील हो और अपना कार्य संपन्न करे। इस प्रकार उसका यह संचयन अपनी वारी में ऐसा कार्य है, जो उसके परिचलन द्वारा निर्धारित होता है और परिचलन के लिए ही उद्दिष्ट होता है। क्रय और अदायगी की निधि के रूप में उसका अस्तित्व , उसकी गति का निलंबन, उसके परिचलन की अंतरित अवस्था- ये सब ऐसी अवस्था बन जाते हैं, जिसमें द्रव्य अपना एक कार्य द्रव्य पूंजी की हैसियत से संपन्न करता है। द्रव्य पूंजी की हैसियत से , क्योंकि इस प्रसंग में अस्थायी तौर पर भी निश्चल द्रव्य स्वयं द्रव्य पूंजी द्र (द्र' -- द्र=द्र) का , माल पूंजी के मूल्य के उस अंश का भाग है, जो उ के, उत्पादक पूंजी के मूल्य के वरावर है, जिससे परिपथ आरम्भ होता है। दूसरी ओर परिचलन से बाहर निकाले हुए समस्त द्रव्य का रूप अपसंचय का होता है। इसलिए द्रव्य का अपतंचय के रूप में होना यहां द्रव्य पूंजी का एक कार्य वन जाता है, वैसे ही, जैसे द्र-मा में खरीदारी या अदायगी के साधन के रूप में द्रव्य का कार्य द्रव्य पूंजी का - + 1