द्रव्य पूंजी का परिपथ पापुनरुदित करता है। किन्तु उ सा, वास्तविक माल , जो पूंजी परिपथ में प्रवेश करते हैं, उत्पादक उपभोग के पोपाहार मात्र होते हैं। श्र-द्र क्रिया श्रमिक के व्यक्तिगत उपभोग का संवर्धन करती है, निर्वाह साधनों को उसके रक्त-मांस में परिवर्तित होने देती है। ठीक है कि पूंजीपति का होना भी जरूरी है, उसका भी जीवित रहना और उपभोग करना जरूरी है, जिससे कि वह पूंजीपति का कार्य कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दरअसल उसे उतना ही उपभोग करना होता है, जितना श्रमिक करता है, और परिचलन प्रक्रिया के इस रूप में इतनी सी बात हो पूर्वानुमानित है। किन्तु यह बात भी औपचारिक रूप में व्यक्त नहीं की जाती, क्योंकि द्र' से सूत्र पूरा हो जाता है, अर्थात ऐसी परिणति से कि जो संवर्धित द्रव्य पूंजी के रूप में अपना कार्य तुरंत ही फिर शुरू कर सकता है। मा'-द्र' में मा' की विक्री प्रत्यक्षतः सम्मिलित होती है, किन्तु मा' -द्र' एक पक्ष के लिए विक्री है, और दूसरे पक्ष के लिए द्र मा है, ख़रीदारी है। अन्ततोगत्वा माल अपने उपयोग मूल्य के लिए ही उपभोग प्रक्रिया में प्रवेश करने के लिए ही ख़रीदा जाता है ( विक्री की मध्यवर्ती क्रियाओं पर ध्यान दिये बिना) और यह उपभोग चाहे व्यक्तिगत हो, चाहे उत्पादक , वह ख़रीदी हुई वस्तु की प्रकृति के अनुरूप होता है। पर यह उपभोग वैयक्तिक पूंजी के परिपथ में प्रवेश नहीं करता, जिसका उत्पाद मा' है। इस उत्पाद को परिपथ से ठीक इसी कारण निकाल दिया जाता है कि वह विक्री का माल है। मा' स्पष्टतः उसके उत्पादक के नहीं, दूसरों के उपभोग के लिए है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वाणिज्य व्यवस्था; (जो द्र मा मा द्र' सूत्र पर आधारित है ) के व्याख्याता इस आशय के लंबे-लंवे प्रवचन देते हैं कि अलग-अलग पूंजीपति को उतना ही उपभोग करना चाहिए, जितना श्रमिक करता है, और पूंजीपतियों के राष्ट्र को खुद अपने मालों का उपभोग और सामान्यतः सारी उपभोग प्रक्रिया दूसरे कम बुद्धिमान राष्ट्रों के लिए छोड़ देना चाहिए और स्वयं उन्हें उत्पादक उपभोग को अपना जीवन-कर्तव्य बनाना चाहिए। रूप और विषय की दृष्टि से ये प्रवचन चर्च के पादरियों के तदनुरूप संयम सम्बन्धी प्रवचनों की याद दिलाते हैं। - कुछ पूंजी की परिपथीय गति परिचलन और उत्पादन की एकता है। द्र मा और मा द्र' ये दोनों दौर परिचलन क्रियाएं हैं, इसलिए पूंजी का परिचलन मालों के सामान्य परिचलन का अंग है। किन्तु चूंकि कार्यतः वे पूंजी के परिपथ के निश्चित अनुभाग हैं, उसकी मंज़िलें हैं (पूंजी के इस परिपथ का सम्बन्ध परिचलन क्षेत्र से ही नहीं है, वरन उत्पादन क्षेत्र से भी है), इसलिए मालों के सामान्य परिचलन में पूंजी स्वयं अपने परिपथ से गुजरती है। पहली मंजिल में मालों का सामान्य परिचलन पूंजी के ऐसा आकार ग्रहण करने के साधन का काम देता है, जिसमें वह उत्पादक पूंजी का कार्य कर सकती है। दूसरी मंजिल में वह उस माल रूप को उतारने के काम आता है, जिसमें पूंजी अपने परिपथ को नये सिरे से चालू नहीं कर सकती। इसके साथ ही वह पूंजी के लिए यह सम्भावना उत्पन्न कर देता है कि उसमें जो वेशी मूल्य जुड़ गया है, उसके परिचलन से वह खुद अपने परिपथ को अलग कर ले।
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