पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४३४

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संचय तथा विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन ४३३ के पास लौट आता है, जिसने ख़रीद के समय उसे पेशगी दिया था और जिसने फिर खरीदने से पहले विक्री की थी। किंतु जहां तक मालों के स्वयं विनिमय का, वार्षिक उत्पाद के विभिन्न अंशों के विनिमय का प्रश्न है, वास्तविक संतुलन परस्पर विनिमीत मालों के मूल्यों के बरावर होने की अपेक्षा करता है। किंतु चूंकि एकपक्षीय विनिमय ही किये जाते हैं, एक ओर कुछ मात्र क्रय , दूसरी ओर कुछ मात्र विक्रय - और हम देख चुके हैं कि पूंजीवाद के आधार पर वार्षिक उत्पाद का सामान्य विनिमय ऐसे एकपक्षीय रूपांतरण अनिवार्य बना देता है - इसलिए संतुलन तभी कायम रखा जा सकता है कि जब यह माना जाये कि एकपक्षीय क्रय और एकपक्षीय विक्रय की मूल्य राशि एक सी है। माल उत्पादन पूंजीवादी उत्पादन का सामान्य रूप है, इस तथ्य में द्रव्य की उसमें परिचलन माध्यम के रूप में ही नहीं, बल्कि द्रव्य पूंजी के रूप में निबाही जानेवाली भूमिका भी निहित है और वह सामान्य विनिमय की कुछ ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करता है, जो उत्पादन की इस पद्धति की और इसलिए पुनरुत्पादन के सामान्य क्रम की विशेषता हैं, फिर चाहे वह साधारण पैमाने पर हो, चाहे विस्तारित पैमाने पर और जो असामान्य गति की नाना परिस्थितियों में, संकटों की नाना संभावनाओं में बदल जाती हैं, क्योंकि इस उत्पादन की स्वतःस्फूर्त प्रकृति के कारण संतुलन का होना स्वयं एक आकस्मिक घटना है। हम यह भी देख चुके हैं कि 4 के IIस के अनुरूप मूल्य राशि से विनिमय में अंततोगत्वा ठीक IIस के प्रसंग में ही माल II का समतुल्य माल मूल्य I से प्रतिस्थापन होता है और इसलिए समष्टि पूंजीपति II की ओर से उसके अपने मालों की बिक्री की वाद में I से उसी मूल्य राशि के माल की खरीद से अनुपूर्ति की जाती है। यह प्रतिस्थापन तो हो जाता है। किंतु जो नहीं होता , वह I तथा II पूंजीपतियों के बीच उनके अपने-अपने माल का विनिमय है। IIस अपना माल मजदूर वर्ग I को बेचता है। मजदूर वर्ग I उसके सामने एकांगी रूप में, मालों के ग्राहक के रूप में आता है और वह उसके सामने एकांगी रूप में मालों के विक्रेता के रूप में आता है। इस तरह प्राप्त धन से IIस समष्टि पूंजीपति I के सामने एकांगी रूप में मालों के ग्राहक के रूप में आता है और समष्टि पूंजीपति I उसके सामने एकांगी रूप में 4 राशि के मालों के विक्रेता के रूप में खड़ा होता है। मालों की इस विक्री द्वारा ही अंततोगत्वा I अपनी परिवर्ती पूंजी द्रव्य पूंजी के रूप में पुनरुत्पादित करता है। यदि पूंजी I एकपक्षीय ढंग से 4 राशि के मालों के विक्रेता के नाते एकांगी रूप में पूंजी II के सामने आती है, तो वह मजदूर वर्ग I के सामने उसकी श्रम शक्ति को खरीदनेवाले मालों के ग्राहक के रूप में आती है। और यदि मजदूर वर्ग I मालों के ग्राहक के रूप में (यानी निर्वाह साधन ख़रीदनेवाले के रूप में ) पूंजीपति II के सामने एकांगी रूप में आता है, तो वह पूंजीपति I के सामने एकांगी रूप में मालों के विक्रेता की तरह , यानी अपनी श्रम शक्ति के विक्रेता की तरह प्राता है। मजदूर वर्ग I द्वारा निरंतर श्रम शक्ति की पूर्ति , माल पूंजी I के एक अंश का परिवर्ती पूंजी के द्रव्य रूप में पुनःपरिवर्तन , स्थिर पूंजी IIस के नैसर्गिक तत्वों द्वारा माल पूंजी II के एक अंश का प्रतिस्थापन - ये सभी आवश्यक आधारिकाएं परस्पर निर्भर हैं, एक बहुत . किंतु वे "S-1150