पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४३२

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संचय तथा विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन हैं। इस बीच पूंजीपतियों का दूसरा हिस्सा अव भी अपनी संभाव्य मुद्रा पूंजी के अपसंचय में लगा होता है। इन दोनों संवर्गों के पूंजीपति एक दूसरे के सामने आते हैं : कुछ ग्राहक के नाते , तो अन्य विक्रेता के नाते और दोनों में से प्रत्येक इनमें से एक भूमिका ही निवाहता है। उदाहरणतः, मान लीजिये क ख को (जो एकाधिक ग्राहक का प्रतीक हो सकता है) ६०० (४००स +१००+ १००वे के वरावर ) वेचता है। क द्रव्य रूप में ६०० के बदले माल के रूप में ६०० वेचता है ; जिनमें १०० वेशी मूल्य हैं, जिन्हें वह परिचलन से निकाल लेता है और द्रव्य के रूप में अपसंचित कर लेता है। किंतु द्रव्य में ये १०० उस बेशी उत्पाद का द्रव्य रूप मात्र हैं, जो १०० के मूल्य का वाहक था। अपसंचय बनने का मतलव उत्पादन का बिल्कुल न होना और इसलिए उत्पादन वृद्धि न होना भी है। यहां पूंजीपति की कारगुजारी सिर्फ इतनी है कि वह अपने बेशी उत्पाद की विक्री से हथियाये द्रव्य रूप में १०० को परिचलन से निकाल लेता है, जिन्हें वह अपने कब्जे में किये रहता है और तिजोरी में बंद कर देता है। यह कार्य अकेले क द्वारा ही नहीं, वरन परिचलन परिसर के नाना बिंदुओं पर क', क" क", आदि अन्य पूंजीपतियों द्वारा भी किया जाता है, जो सभी समान उत्साह से इस प्रकार के अपसंचय निर्माण में जुटे रहते हैं। ये नाना बिंदु, जिन पर परिचलन से द्रव्य निकाला जाता है और सैकड़ों व्यक्तिगत अपसंचयों अथवा संभाव्य मुद्रा पूंजियों के रूप में संचित किया जाता है, परिचलन की राह में नाना वाधाओं जैसे लगते हैं, क्योंकि वे द्रव्य को निश्चल कर देते हैं और उसे कुछ समय के लिए अपनी परिचालित होने की क्षमता से वंचित कर देते हैं। किंतु यह ध्यान में रखना चाहिए कि साधारण माल परिचलन में अपसंचय उसके पूंजीवादी माल उत्पादन पर आधारित होने के वहुत पहले ही हो जाता है। समाज में विद्यमान द्रव्य राशि उसके वास्तविक परिचलन में आनेवाले अंश से सदैव बड़ी होती है, यद्यपि वह परिस्थितियों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। यहां हमारा फिर उसी अपसंचय और अपसंचयों के उसी निर्माण से साबिक़ा होता है, किंतु अब वह पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया के एक अंतर्वर्ती तत्व के रूप में होता है। उस आनंदानुभूति की कल्पना की जा सकती है कि जब उधार पद्धति के अंतर्गत ये सभी संभाव्य पूंजियां बैंकों आदि के हाथों में अपने संकेंद्रण के फलस्वरूप प्रयोज्य , 'उधारार्थ पूंजी", मुद्रा पूंजी बन जाती हैं और वह भी अब निष्क्रिय , दूर के ढोल जैसी नहीं, वरन तेज़ी से बढ़ती सक्रिय पूंजी। फिर भी क अपसंचय निर्माण उसी सीमा तक संपन्न करता है कि जिस सीमा तक वह- जहां तक उसके वेशी उत्पाद का संबंध है - केवल विक्रेता का काम करता है और बाद में ग्राहक का काम नहीं करता। अतः उसके द्वारा वेशी उत्पाद का, द्रव्य में परिवर्तित किये जानेवाले उसके वेशी मूल्य के वाहक का, ऋमिक उत्पादन उसके अपसंचय का निर्माण करने की आधारिका है। प्रस्तुत प्रसंग में, जिसमें हम केवल संवर्ग I के भीतर परिचलन की छानवीन कर रहे हैं, वेशी उत्पाद का दैहिक रूप उस कुल उत्पाद के दैहिक रूप की ही भांति कि जिसका वह एक अंश है, स्थिर पूंजी I के एक तत्व का दैहिक रूप है, अर्थात वह उत्पादन साधनों का निर्माण करनेवाले उत्पादन साधनों के संवर्ग में होता है। हम शीघ्र ही देखेंगे कि इसका होता क्या है, इत्यादि ग्राहकों के हाथ वह क्या कार्य करता है। 11 - ख, ख', ख",