पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपथ श्र 'उ सा गुलामों का क्रय-विक्रय औपचारिक दृष्टि से माल का क्रय-विक्रय भी है। लेकिन दासता के अस्तित्व के बिना द्रव्य यह कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता। अगर दासता का वजूद है, तो धन गुलामों की खरीद में लगाया जा सकता है। इसके विपरीत मात्र धन का स्वामित्व ही दासप्रथा को सम्भव नहीं बना देता है। किसी व्यक्ति की अपनी श्रम शक्ति की. विक्री ( वह चाहे स्वयं अपने श्रम की विक्री के रूप में हो, चाहे. मजदूरी के रूप में ) एक अलग-थलग परिघटना न रहकर माल उत्पादन के लिए सामाजिक रूप में निर्णायक पूर्वाधार बन जाये , अत: सामाजिक पैमाने पर द्रव्य पूंजी द्र-मा का ऊपर विवेचित कार्य करे, इसके लिए ऐसी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की कल्पना की जाती है, जिनके कारण श्रम शक्ति से उत्पादन साधनों का मूल सम्बन्ध विच्छिन्न हुअा था। इन प्रक्रियाओं के फलस्वरूप जनसमूह , यानी सम्पत्तिहीन श्रमिक समूह , उन गैरश्रमिक जनों के सामने आ खड़ा होता है, जो इन उत्पादन साधनों के स्वामी हैं। यहां इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि विच्छिन्न होने से पहले वह मूल सम्बन्ध किस रूप में था- श्रमिक स्वयं उत्पादन का एक साधन होने के नाते उत्पादन के अन्य साधनों के अन्तर्गत था या वह उनका मालिक था। द्र - मार की पृष्ठभूमि में जो चीज़ विद्यमान है, वह वितरण है। वह वैसा वितरण नहीं है, जिसका साधारण अर्थ होता है उपभोग वस्तुओं का वितरण। वह स्वयं उत्पादन के तत्वों का वितरण है, जिसके भौतिक उपादान एक ओर संकेंद्रित हो जाते हैं, और श्रम शक्ति पृथक होकर दूसरी ओर। अतः. जव उत्पादन साधन , उत्पादक पूंजी के भौतिक अंश मजदूर के ही सामने इस रूप में, अर्थात पूंजी के रूप में पायेंगे, तव जाकर ही द्र श्र क्रम सार्विक और सामाजिक बन सकता है। हम पहले यह देख चुके हैं * कि एक बार स्थापित हो जाने पर पूंजीवादी उत्पादन अपने अगले विकास में इस अलगाव की पुनरुत्पत्ति ही नहीं करता, वरन अपना दायरा लगातार तब तक बढ़ाता जाता है, जब तक कि वह प्रचलित सामाजिक परिस्थिति नहीं बन जाता। लेकिन इस समस्या का एक पक्ष और भी है। पूंजी का अभ्युदय हो सके और वह उत्पादन की बागडोर संभाल सके, इसके लिए व्यापार के विकास की एक निश्चित मंजिल की पूर्वापेक्षा की जाती है। अत: यह बात माल परिचलन पर और इसलिए माल उत्पादन पर भी लागू होती है। कारण यह है कि मालों के रूप में किन्हीं भी चीजों का परिचलन में ग्राना तब तक सम्भव नहीं है, जब तक विक्री के लिए न पैदा की जायें, यानी मालों के रूप में न उत्पादित की जायें। किन्तु माल उत्पादन तब तक उत्पादन का सामान्य रूप , उसका प्रमुख रूप नहीं होता, जब तक कि पूंजीवादी उत्पादन उसका आधार नहीं बन जाता। रूस में किसानों के तथाकथित उद्धार वाद जमींदारों को भूदासों की वेगार के बदले अब उजरती मजदूरों से खेती करानी पड़ती है। ये ज़मींदार दो वातों की शिकायत करते हैं।
- कार्ल मार्क्स , 'पूंजी', हिन्दी संस्करण ,
खण्ड १, भाग ७, प्रगति प्रकाशन , मास्को, १९६५।-सं०