पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपय , द्र- मा <3 सा द्वारा, व्यवस्था के सामान्य स्वरूप में कोई तबदीली हुए विना बहुत पहले ही द्रव्य तथाकथित सेवायो के ग्राहक के रूप में प्रकट हो जाता है। द्रव्य के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस तरह के माल में रूपांतरित होता है। वह सभी मालों का सार्विक समतुल्य है। और कुछ नहीं, तो अपनी कीमतों के जरिये ही ये माल अमूर्त रूप में द्रव्य की एक निश्चित मात्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं , अपने द्रव्य में रूपांतरण की प्रत्याशा करते हैं, और द्रव्य का स्थान लिये विना अपने मालिकों के लिए वे वह रूप प्राप्त नहीं कर सकते , जिसमें उन्हें उपयोग मूल्यों में तवदील किया जा सके। एक बार जब अपने मालिक के विकाऊ माल के रूप में श्रम शक्ति बाज़ार में आ जाती है और उसकी विक्री श्रम के भुगतान का रूप ले लेती है, मजदूरी का रूप ग्रहण कर लेती है, तब उसका क्रय-विक्रय वैसे ही किसी अचंभे की बात नहीं रहती कि जैसे और किसी विकाऊ माल का क्रय-विक्रय नहीं होता। विशेष लक्षण यह नहीं है कि श्रम शक्ति नाम का माल खरीदा जा सकता है, वरन यह है कि श्रम शक्ति माल वनकर सामने आती है। द्रव्य पूंजी के उत्पादक पूंजी में रूपान्तरण द्वारा पूंजीपति उत्पादन के वस्तुगत और व्यक्तिगत उपादानों का उस हद तक संयोग स्थापित करता है, जिस हद तक वे माल हैं। यदि द्रव्य का उत्पादक पूंजी में रूपान्तरण पहली बार हुआ है अथवा यदि अपने स्वामी के लिए द्रव्य पूंजी का कार्य वह पहली वार कर रहा है, तो श्रम शक्ति खरीदने से पहले पूंजीपति के लिए पहले इमारतें, मशीनें आदि उत्पादन साधन ख़रीदना आवश्यक होगा। कारण यह कि जैसे ही वह श्रम शक्ति को अपने आदेश पर काम करने को वाध्य करेगा, वैसे ही उसके पास उत्पादन के वे साधन होने चाहिए, जिन पर वह श्रम शक्ति के रूप में उसे लगा सके। यह पूंजीपति द्वारा मामला प्रस्तुत करने का ढंग है। श्रमिक का ढंग इस प्रकार है : जब तक उसकी श्रम शक्ति की विक्री सम्पन्न नहीं होती और उत्पादन साधनों के सम्पर्क में नहीं पाती, तब तक उसका उत्पादक ढंग से उपयोग नहीं किया जा सकता। अतः विकने से पहले श्रम शक्ति उत्पादन साधनों से, उसे काम में लाने को भौतिक परिस्थितियों से अलग विद्यमान रहती है। अलगाव की इस दशा में उसे अपने मालिक के लिए सीधे-सीधे उपयोग मूल्यों उत्पादन के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, न मालों के उत्पादन के लिए काम में लाया जा सकता है, जिन्हें वेचकर वह निर्वाह कर सके। पर जिस क्षण बेचे जाने के फलस्वरूप उत्पादन साधनों से उसका सम्पर्क हो जाता है, उस क्षण से उत्पादन साधनों की ही तरह वह ख़रीदार की उत्पादक पूंजी का अंश बन जाती है। सचमुच द्र -श्र क्रम में द्रव्य का मालिक और श्रम शक्ति का मालिक , ये दोनों ग्राहक और विक्रेता का ही सम्बन्ध कायम करते हैं, वे एक दूसरे के सामने द्रव्य के स्वामी और माल के स्वामी के रूपों में ही आते हैं। इस पहलू से उनके बीच केवल द्रव्य सम्बन्ध कायम होता है। पर इसके साथ ही ग्राहक , प्रारम्भ से ही, उत्पादन साधनों के मालिक की हैसियत से भी सामने आता है। उत्पादन साधन वे भौतिक उपादान हैं, जिनसे श्रम शक्ति का मालिक उसको उत्पादक ढंग से व्यय करता है। दूसरे शब्दों में ये उत्पादन साधन दूसरे की सम्पत्ति होने के नाते श्रम शक्ति के मालिक के विरोध में खड़े होते हैं। दूसरी ओर श्रम विक्रेता के सामने ,
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