पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३३७

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन 1 . -अथवा . + भाग, ' दी जानेवाली रकम के निर्धारण में द्रव्य केवल मूल्य के अधिकल्पित माप का काम करता है और उनका पूंजीपति के हाथ में होना भी जरूरी नहीं है); दूसरी बार उत्पादन प्रक्रिया में, जिसमें वह पूंजी की तरह , अर्थात पूंजीपति के हाथ में और मूल्य तथा उपयोग मूल्य का सृजन करने- वाले तत्व की तरह कार्य करती है। मजदूर को जो दिया जाना है, पूंजीपति द्वारा उसके द्रव्य रूप में अदा किये जाने के पहले ही श्रम शक्ति ही माल रूप में उस समतुल्य की पूर्ति कर चुकी है। इसलिए स्वयं मजदूर ही उस निधि का निर्माण करता है, जिससे पूंजीपति उसकी अदायगी करता है। लेकिन वात इतनी ही नहीं है। मजदूर जो धन पाता है , उसे वह अपनी श्रम शक्ति को बनाये रखने के लिए, पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग को उनकी समग्रता में देखते हुए -पूंजीपति के लिए उस उपकरण को बनाये रखने के लिए खर्च करता है, जिसके बूते पर ही वह पूंजीपति वना रह सकता है। इस प्रकार श्रम शक्ति का सतत क्रय-विक्रय पूंजी के एक तत्व के रूप में श्रम शक्ति को स्थायित्व प्रदान करता है, जिसकी बदौलत पूंजी पण्य वस्तुओं की , उपयोग वस्तुओं की, जिनका मूल्य होता है, लप्टा वनकर प्रकट होती है, इसके अलावा, जिसकी बदौलत पूंजी का वह जो श्रम शक्ति ख़रीदता है, श्रम शक्ति के अपने ही उत्पाद द्वारा निरंतर बहाल होता रहता है और फलतः स्वयं मजदूर निरंतर पूंजी की उस निधि का निर्माण करता रहता है, जिसमें से उसे अदायगी की जाती है। दूसरी ओर श्रम शक्ति की निरंतर विक्री मजदूर के भरण- पोपण का अपने को निरंतर नवीकृत करता त्रोत बन जाती है और इसलिए उसकी श्रम शक्ति उस शक्ति के रूप में प्रकट होती है, जिसके जरिये वह अपनी गुज़र के लिए प्राय हासिल करता है। इस मामले में प्राय का मतलब माल (श्रम शक्ति) की निरंतर विक्री द्वारा जनित मूल्यों के विनियोजन के सिवा और कुछ नहीं है और ये मूल्य केवल वेचे जानेवाले. माल के निरंतर पुनरुत्पादन के ही काम पाते हैं। और इस हद तक स्मिथ का यह कहना सही है कि स्वयं मजदूर द्वारा सृजित उत्पाद का वह मूल्यांश उसकी आय का स्रोत बन जाता है, जिसके लिए पूंजीपति उसे मजदूरी रूप में समतुल्य देता है। किंतु इससे माल के इस मूल्यांश का स्वरूप अथवा परिमाण नहीं बदल जाता , जैसे उत्पादन साधनों का मूल्य इससे नहीं बदल जाता कि वे पूंजी मूल्यों का कार्य करते हैं अथवा सरल रेखा का स्वरूप और परिमाण इससे नहीं बदल जाता कि वह किसी त्रिकोण की आधार रेखा या किसी दीर्घवृत्त का व्यास है। श्रम शक्ति का मूल्य वैसे ही नितांत स्वतंत्र रूप में सुनिश्चित रहता है, जैसे उत्पादन साधनों का। माल का यह मूल्यांश न तो ऐसी आय होता है, जो स्वतंत्र उपादान की तरह इस मूल्यांश को बनाती हो, न वह अपने को आय में ही वियोजित करता है। जहां मजदूर द्वारा लगातार पुनरुत्पादित यह नया मूल्य उसके लिए आमदनी का स्रोत तो होता है, किंतु इसके विपरीत उसकी प्राय उसके द्वारा उत्पन्न इस नये मूल्य का घटक नहीं बनती। उसके द्वारा सृजित नये मूल्य का जो हिस्सा उसे अदा किया जाता है, उसका परिमाण उसकी आय के मूल्य परिमाण को निर्धारित करता है, न कि इसका उलटा होता है। यह तथ्य कि नवसृजित मूल्य का यह अंश उसके लिए आय होता है, केवल यह इंगित करता है कि उसका होता क्या है, वह उसके उपयोग का स्वल्प दिखलाता है और उसको उत्पत्ति से उसका वैसे ही कोई संबंध नहीं होता, जैसे अन्य किसी मूल्य की उत्पत्ति से भी नहीं होता । यदि मेरी प्राप्ति हफ्ते में दस शिलिंग है, तो इससे दस शिलिंग के मूल्य की प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता , न उनके मूल्य के परिमाण में होता है। किसी भी अन्य माल की ही भांति श्रम शक्ति का मूल्य भी उसके