पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३३५

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन 2 चाहे उधार के जरिये उसने पहले ही यह पैसा निकाल लिया है- इन सभी मामलों में पूंजीपति परिवर्ती पूंजी व्यय करता है, जो द्रव्य रूप में मजदूरों के हाथ में पहुंच जाती है और दूसरी और उसके पास इस पूंजी मूल्य का समतुल्य उसकी पण्य वस्तुओं के उस मूल्यांश में रहता है, जिसमें मजदूर ने उसके कुल मूल्य का अपना हिस्सा फिर से उत्पादित कर दिया है, दूसरे शब्दों में, जिसमें उसने अपनी ही मजदूरी के मूल्य का उत्पादन कर दिया है। मजदूर को अपने ही उत्पाद के दैहिक रूप में यह मूल्यांश देने के बदले पूंजीपति उसकी द्रव्य रूप में अदायगी करता है। पूंजीपति के लिए उसके पेशगी पूंजी मूल्य का परिवर्ती अंश अव माल रूप में विद्यमान है, जब कि मजदूर को अपनी विकी हुई श्रम शक्ति का समतुल्य द्रव्य रूप में प्राप्त हो गया है। अब जहां पूंजीपति द्वारा पेशगी दी पूंजी का वह भाग, जो श्रम शक्ति की खरीद के जरिये परिवर्ती पूंजी में परिवर्तित हो गया है, स्वयं उत्पादन प्रक्रिया में कार्यशील श्रम शक्ति की तरह कार्य करता है और इस शक्ति के व्यय द्वारा माल के रूप में फिर से नये मूल्य का उत्पादन होता है, अर्थात वह पुनरुत्पादित होता है, अतः पेशगी पूंजी मूल्य का पुनरुत्पादन अथवा नवोत्पादन होता है, वहां मजदूर अपनी विकी हुई श्रम शक्ति का मूल्य या उसकी कीमत निर्वाह साधनों पर, अपनी श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन साधनों पर खर्च करता है। परिवर्ती पूंजी के बरावर धन राशि उसकी आय , अतः उसकी आमदनी होती है, जो तभी तक चलती है कि जब तक वह पूंजीपति को अपनी श्रम शक्ति वेच सकता है। उजरती मजदूर की पण्य वस्तु - उसकी श्रम शक्ति-माल का कार्य वहीं तक करती है , जहां तक उसका पूंजीपति की पूंजी में समावेश होता है, यानी वह पूंजी की तरह कार्य करती है ; दूसरी ओर पूंजीपति जो पूंजी श्रम शक्ति की खरीद में द्रव्य पूंजी के रूप में ख़र्च करता है, वह श्रम शक्ति के विक्रेता, उजरती मजदूर के हाथ में प्राय का कार्य करती है। यहां परिचलन और उत्पादन की विविध प्रक्रियाओं का परस्पर मिश्रण होता है, जिनमें ऐडम स्मिथ विभेद नहीं करते। पहलाः परिचलन प्रक्रिया से संबंधित कार्य। मजदूर अपना माल-श्रम शक्ति - पूंजीपति को बेचता है ; पूंजीपति उसे जिस धन से ख़रीदता है, वह उसके दृष्टिकोण से वेशी मूल्य के उत्पादन के लिए निवेशित धन , अतः द्रव्य पूंजी है; वह ख़र्च नहीं की जाती, वरन पेशगी दी जाती है। (“पेशगी" - प्रकृतितंत्रवादियों के avance- का यही वास्तविक अर्थ है , पूंजीपति द्रव्य चाहे जहां से लाये। पूंजीपति उत्पादन प्रक्रिया के हेतु भी मूल्य अदा करता है, वह उसके दृष्टिकोण से पेशगी दिया जाता है, चाहे यह पहले हो या post festum; वह स्वयं उत्पादन प्रक्रिया के लिए पेशगी दिया जाता है।) यहां भी वैसा ही होता है, जैसा माल की और किसी भी विक्री में होता है। विक्रेता उपयोग मूल्य ( यहां अपनी श्रम शक्ति ) देता है और द्रव्य रूप में उसका मूल्य पाता है ( उसकी कीमत का सिद्धिकरण करता है); ग्राहक अपना धन देता है और बदले में स्वयं माल - यहां श्रम शक्ति -प्राप्त करता है। दूसरा ः उत्पादन प्रक्रिया में खरीदी हुई श्रम शक्ति अब कार्यरत पूंजी का अंश बन जाती है और स्वयं मजदूर यहां केवल इस पूंजी के एक विशेप दैहिक रूप का काम करता है, जो पूंजी के उन तत्वों से भिन्न होता है, जो उत्पादन साधनों के दैहिक रूप विद्यमान होते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान अपनी श्रम शक्ति ख़र्च करके मजदूर उत्पादन साधनों में मूल्य जोड़ता है, जिसे वह अपनी श्रम शक्ति के मूल्य के (वेशी मूल्य से अलग ) वरावर उत्पाद में तवदील करता है; इसलिए वह पूंजीपति के लिए माल के रूप में उसकी पूंजी के उस अंश