पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२५०

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पेशगी पूंजी के परिमाण पर आवर्त काल का प्रभाव २४६ . . इस प्रसंग में पूंजियां आपस में गंथ जाती हैं, क्योंकि पूंजी ३ की कार्य अवधि पूंजी १ के पहले कार्य सप्ताह से बिल्कुल मेल खा जाती है। पूंजी ३ हफ्ते भर लिए ही काफ़ी होती है, इसलिए उसकी कोई स्वतंत्र कार्य अवधि नहीं होती। दूसरी ओर १ और २ दोनों ही पूंजियों की कार्य अवधि समाप्त होने पर १०० पाउंड की राशि , जो पूंजी ३ के वरावर है, मुक्त हो जाती है। कारण यह है कि यदि पूंजी ३ पूंजी १ की दूसरी कार्य अवधि के पहले सप्ताह और वाद की सभी कार्य अवधियों को पूरित करती है, और ४०० पाउंड – समग्र पूंजी १- इस पहले हफ्ते की समाप्ति पर लौट आते हैं, तो पूंजी १ की शेष कार्य अवधि में केवल तीन हफ्ते , और ३०० पाउंड का तदनुरूप पूंजी निवेश ही वाक़ी रहते हैं। इस तरह मुक्त हुए १०० पाउंड पूंजी २ की एकदम बाद में आनेवाली कार्य अवधि के पहले हफ्ते के लिए पर्याप्त होंगे ; उस सप्ताह के अंत में ४०० पाउंड की समग्र पूंजी २ लौट आयेगी। किंतु चूंकि जो कार्य अवधि शुरू हो चुकी है, वह केवल ३०० पाउंड और ही जज़्व कर सकती है, इसलिए उसकी समाप्ति पर १०० पाउंड फिर अलग हो जाते हैं। इसी प्रकार आगे भी होता है। तो होता यह है कि जब भी परिचलन अवधि कार्य अवधि का सरल गुणज नहीं होती, तब कार्य अवधि की समाप्ति पर पूंजी मुक्त हो जाती है। और यह मुक्त पूंजी पूंजी के उस भाग के बराबर होती है , जिसे कार्य अवधि की तुलना में परिचलन अवधि के अथवा कार्य अवधियों के गुणज से परिचलन अवधि के आधिक्य को भरना होता है। जितने प्रसंगों की छानबीन की गई है, उनमें यह माना गया था कि यहां अन्वेषित व्यवसाय में कार्य अवधि और परिचलन अवधि दोनों सारे साल एक सी रहती हैं। यदि हम पूंजी के प्रावर्त और पेशगी दिये जाने पर परिचलन काल के प्रभाव को जानना चाहते , तो यह कल्पना आवश्यक थी। इससे स्थिति में ज़रा भी अंतर नहीं आता है कि यह कल्पना यथार्थ में इतने निरुपाधिक रूप में संगत नहीं है और अक्सर बिल्कुल संगत होती भी नहीं है। इस समूचे परिच्छेद में हमने केवल प्रचल पूंजी के प्रावों पर विचार किया है, स्थायी पूंजी के प्रावों पर नहीं। इसका सीधा सा कारण यह है कि जो विचारणीय समस्या हमारे सामने है, उसका स्थायी पूंजी से कोई संबंध नहीं है। उत्पादन प्रक्रिया में प्रयुक्त श्रम के औजार, आदि स्थायी पूंजी केवल इस हद तक होते हैं कि उनके उपयोग का समय प्रचल पूंजी की आवर्त अवधि से ज्यादा होता है ; निरंतर दोहराई जानेवाली श्रम प्रक्रियाओं में लगातार प्रयुक्त इन श्रम उपकरणों के काम में आने की अवधि प्रचल पूंजी की आवर्त अवधि से बड़ी होती है, अतः वह प्रचल पूंजी के आवर्गों की सं अवधियों के बराबर होती है। प्रचल पूंजी के आवर्त की इन सं अवधियों द्वारा सूचित कुल समय चाहे दीर्घ हो अथवा अल्प , उत्पादक पूंजी का जो भाग इस काल के लिए स्थायी पूंजी के रूप में पेशगी दिया गया था, वह उसके दौरान फिर से पेशगी नहीं दिया जाता। वह अपने पुराने उपयोग रूप में अपने कार्य करता रहता है। अंतर केवल यह होता है : प्रचल पूंजी के प्रावर्त की प्रत्येक अवधि की एक ही कार्य अवधि की बदलती हुई दीर्घता के अनुपात में स्थायी पूंजी उस कार्य अवधि के उत्पाद को अपने आद्य मूल्य का न्यूनाधिक भाग दे देती है ; और प्रत्येक पावर्त अवधि के परिचलन काल की दीर्घता के अनुपात में उत्पाद को दिया हुआ स्थायी पूंजी का यह मूल्यांश द्रव्य रूप में न्यूनाधिक शीव्रता से वापस आ जाता है। इस परिच्छेद में हम जिस विषय का- उत्पादक पूंजी के प्रचल भाग के यावर्त का-विवेचन कर रहे हैं, उसका स्वरूप इस भाग के स्वरूप से ही उत्पन्न होता है। एक कार्य अवधि में प्रयुक्त प्रचल पूंजी जब तक अपना यावर्त पूरा न कर ले , जब तक वह .