पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२३०

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परिचलन काल २२६ 64 इसके अलावा हम मालों के क्रय के सिलसिले में यह भी देख चुके हैं (अध्याय ६) कि क्रय काल के कारण, कच्चे माल के मुख्य स्रोतों से न्यूनाधिक दूरी के कारण कच्चे माल को दीर्घतर अवधि के लिए खरीदना और उसे उत्पादक पूर्ति के रूप में, अंतर्हित अथवा संभाव्य उत्पादक पूंजी के रूप में उपलभ्य रखना आवश्यक हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप एकबारगी पेशगी दी जानेवाली पूंजी की राशि और जितने समय के लिए वह पेशगी दी जाती है, उसकी अवधि भी बढ़ जाती है, वशर्ते कि उत्पादन का पैमाना उतना ही रहे । समय की उन न्यूनाधिक दीर्घ अवधियों से भी व्यवसाय की विभिन्न शाखाओं में इससे मिलता-जुलता परिणाम उत्पन्न होता है, जिनमें कच्चे माल की अपेक्षाकृत बड़ी राशियां बाज़ार में डाल दी जाती हैं। मिसाल के लिए , लंदन में हर तीसरे महीने ऊन की बड़ी नीलामी होती है और ऊन का वाज़ार इस नीलामी द्वारा नियंत्रित होता है। दूसरी ओर, कपास के बाजार को फ़सल दर फ़सल समान गति से नहीं, तो भी निरंतर माल से भरे रखा जाता है। इस तरह की कालावधियां यह कच्चा माल खरीदने की मुख्य तिथियों को निर्धारित करती हैं। उसका असर इन उत्पादन तत्वों के लिए न्यूनाधिक समय के लिए पेशगी की अपेक्षा करनेवाली सट्टा खरीदों पर ख़ास तौर से ज्यादा होता है, जैसे उत्पादित माल की प्रकृति किसी उत्पाद के संभाव्य माल पूंजी के रूप में न्यूनाधिक काल के लिए, अपेक्षी , साभिप्राय रूप में रोके रखने पर असर डालती है। 'काश्तकार को एक हद तक सटोरिया भी होना चाहिए और इसलिए यदि उस समय की हालत को देखते हुए ज़रूरी हो, तो अपनी उपज की विक्री को रोके रखना चाहिए " इसके बाद कुछ सामान्य नियम हैं। फिर भी उपज को बेचने के मामले में सब कुछ मुख्यतः व्यक्ति पर, स्वयं उपज पर और स्थान पर निर्भर करता है। अगर कोई अादमी होशियार और किस्मतवाला (! ) है, साथ ही उसके पास काफ़ी कार्यशील पूंजी भी है, तो भाव असाधारण रूप से गिर जाने पर यदि वह अपनी अनाज की फ़सल वस साल भर तक रोके रहे , तो इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। दूसरी ओर, अगर किसी के पास कार्यशील पूंजी नहीं है, या उसमें सट्टेवाज़ी की भावना का नितांत अभाव (!) है, तो वह चालू औसत दाम ही पाने की कोशिश करेगा, और जब भी और जितनी वार भी मौक़ा आयेगा , उसे माल बेचना पड़ेगा। ऊन को साल भर से ज्यादा समय तक गोदाम में रखने का मतलव सदैव हानि होगा, लेकिन ग़ल्ले और तिलहन को उनकी कोटि और श्रेष्ठता को नुकसान पहुंचाये विना कई साल तक रखे रहा जा सकता है। ऐसी पैदावारों को, जिनके भावों में थोड़े- थोड़े समय में भारी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, जैसे तिलहन , हॉप, टीजेल , आदि , उन वर्षों में जमा करके रखे रहना लाभदायी होगा, जिनमें विक्री की कीमत उत्पादन की कीमत से बहुत कम होती है। जिन चीज़ों के परिरक्षण में रोजाना ख़र्च पड़े, जैसे मोटाये हुए जानवर, या जो जल्दी विगड़ जाती हैं, जैसे फल , पालू, वगैरह, उनकी विक्री को रोके रखने में सबसे कम औचित्य है। अलग-अलग स्थानों में किसी खास उपज के औसत दाम किसी मौसम में सबसे कम मिलते हैं, तो दूसरे मौसमों में सबसे ऊंचे मिलते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ प्रदेशों में अनाज का औसत भाव बड़े दिन और ईस्टर के बीच के समय की अपेक्षा संत मार्टिन दिवस के पास-पास गिरा होता है। फिर कुछ चीजें कुछ स्थानों में कुछ ख़ास वक़्तों पर ही अच्छी विकती हैं, जैसे ऊन के मामले में उन स्थानों के ऊन वाजारों में होता है, जहां अन्य समय पर ऊन का व्यापार ठंडा रहता है, इत्यादि" (किर्कोफ़, पृष्ठ ३०२)। परिचलन काल के उत्तरार्ध का, जिसमें द्रव्य उत्पादक पूंजी के तत्वों में पुनःपरिवर्तित 1