भूमिका २१ (1 47 वह केवल Das Kapital, Buch I, Kap. XV, A),* वह सिद्ध करते हैं कि किराया ज़मीन लाभ से अलग और उसके अलावा वेशी है, जो किन्हीं परिस्थितियों में पैदा नहीं होता है। इन सारी बातों में कहीं भी रॉदवेर्टस रिकार्डो से आगे नहीं गये हैं। रिकार्डो सिद्धान्त के जिन अन्तर्विरोधों से उस धारा का पतन हुआ, उनसे वह या तो पूर्णतः अपरिचित थे या उनका अर्थशास्त्रीय समाधान ढूंढ़ने की प्रेरणा पाने के बदले वह काल्पनिक मांगें प्रस्तुत करने के फेर में पड़ गये (उनकी Zur Erkenntnis, etc., पृष्ठ १३०) । किन्तु मूल्य तथा वेशी मूल्य के रिकार्डो सिद्धान्त को समाजवादी उद्देश्यों में इस्तेमाल किये जाने के लिए रॉदवेर्टस की रचना Zur Erkenntnis के इंतजार में बैठे नहीं रहना पड़ा। पहले खंड ( Das Kapital, दूसरा संस्करण ) ** के पृष्ठ ६०६ पर यह उद्धरण मिलता है, "वेशी उत्पाद अथवा पूंजी के मालिक ।" इसे १८२१ में लन्दन से प्रकाशित एक पुस्तिका से लिया गया है, जिसका शीर्षक है The Source and Remedy of the National Difficul- ties. A Letter to Lord John Russel. [ राष्ट्रीय कठिनाइयों के कारण और उनका समाधान'। लॉर्ड जॉन रसेल के नाम पत्र । ४० पन्नों की इस पुस्तिका का महत्व और किसी चीज़ से नहीं, तो “वेशी उत्पाद अथवा पूंजी" इस शब्दावली से पहचान लिया जाना चाहिए था। मार्क्स ने उसे पूरी तरह विस्मृति के गर्भ में विलीन होने से बचा लिया। उसमें हम पढ़ते हैं : पूंजीपति को चाहे जो भी प्राप्य हो" (पूंजीपति के दृष्टिकोण से ), मजदूर का बेथी श्रम ही प्राप्त कर सकता है, क्योंकि मजदूर को जीना है". ( पृष्ठ २३ )। लेकिन मज़दूर कैसे जीता है और इसलिए उस वेशी श्रम की मात्रा क्या होगी, जिसे पूंजीपति हड़प लेता है, ये बहुत सापेक्ष चीजें हैं। “पूंजी जैसे मात्रा में बढ़ती है, वैसे ही यदि वह मूल्य में घटती नहीं है, तो मज़दूर जितनी उपज से ज़िन्दा रह सकता है, उसके अलावा हर घण्टे की मेहनत की उपज को पूंजीपति मज़दूरों से वसूल करेंगे पूंजीपति अन्त में मजदूर से कह सकता है, 'तुम रोटी नहीं खानोगे, क्योंकि तुम आलू और चुकन्दर खाकर जिन्दा रह सकते। हो।' और अव नौवत यहां तक आ पहुंची है ! (पृष्ठ २४ ) । "सीधी बात है कि मजदूर को रोटी के वदले आलू खाकर जिन्दा रहने को मजबूर किया जा सके , तो इसमें शक ही क्या है कि उसकी मेहनत से कहीं ज्यादा वसूल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, रोटी खाकर अगर उसे सोमवार और मंगल को मेहनत खुद अपने को और अपने परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए रखनी होती थी, तो आलू खाकर उसे केवल आधे सोमवार की मेहनत की ही ज़रूरत होगी। वाक़ी आधा सोमवार और पूरे का पूरा मंगल राज्य अथवा पूंजीपति की सेवा के लिए सुलभ होंगे" (पृष्ठ २६ )। “यह मानी हुई बात है कि पूंजीपतियों को जो सूद या नफ़ा दिया जाता है, वह चाहे किराये के रूप में हो, चाहे धन पर सूद के रूप में, और चाहे) व्यापार के मुनाफ़े के रूप में हो, वह उन्हें दूसरों की मेहनत से निकालकर ही दिया जाता है" (पृष्ठ २३ )। यहां “किराये" की विलकुल वही धारणा है, जो रॉदवेर्टस के यहां है; अन्तर इतना ही है कि यहां “किराये" के बदले " सूद" शब्द का प्रयोग किया गया है। इस पर मार्क्स की टिप्पणी इस प्रकार है (Zur Kritik, पाण्डुलिपि, पृष्ठ ८५२ ) : " इस पुस्तिका से बहुत ही कम लोग परिचित हैं। यह उस समय छपी थी, जव मैक-कुलोच . . . अध्याय १७, १, मास्को,
- कार्ल मार्क्स, 'पूंजी', हिन्दी संस्करण , खंड १,
१६६५।-सं० हिन्दी संस्करण : पृष्ठ ६६० ।- सं०