पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२१९

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२१८ पूंजी का प्रावत , सी बनी रहे, तो प्रचल पूंजी का प्रत्यावर्तन अयवा उसका नवीकरण भी पूरे साल समरूप रहता है। फिर भी, वर्ष की विभिन्न अवधियों में प्रचल पूंजी के परिव्यय में सबसे बड़ी असमानता ऐसे पूंजी निवेशों में देखी जाती है, जहां कार्य काल तो उत्पादन काल का अंश मात्र होता है, किंतु प्रत्यावर्तन केवल प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा निर्धारित समय पर एक साथ होता है। अगर व्यवसाय का पैमाना एक सा रहे, अर्थात पेशगी प्रचल पूंजी की राशि एक सी रहे, तो उसे सतत कार्य अवधिवाले उद्यमों के मुक़ावले एकवारगी अधिक मात्रा में तथा अधिक लंबी अवधि के लिए पेशगी देना होता है। यहां स्थायी पूंजी के जीवन काल में तथा जितने समय में वह वस्तुतः उत्पादक ढंग से कार्य करती है, उसमें भी काफ़ी अधिक अंतर होता है। कार्य काल तथा उत्पादन काल में अंतर होने से निस्संदेह व्यवहृत स्थायी पूंजी के नियोजन काल में भी न्यूनाधिक समय तक लगातार क्रमभंग होता रहता है, जैसे खेती में कमकर मवेशियों, प्रौज़ारों और मशीनों के मामले में। जहां तक इस पूंजी में समाहित भारवाही पशुओं का सवाल है, उनकी ख राक , वगैरह पर जितना ख़र्च काम के समय आता है, उतना ही या लगभग उतना ही हर समय आता है। अनविके माल के मामले में उपयोग न करने से भी एक सीमा तक मूल्य ह्रास होता है। अतः उत्पाद की कीमत सामान्यतः वढ़ती जाती है। कारण यह कि उसे अंतरित मूल्य का परिकलन उस समय के अनुसार नहीं, जिसके दौरान स्थायी पूंजी कार्य करती है, वरन उस समय के अनुसार किया जाता है, जिसके दौरान उसके मूल्य का ह्रास होता है। उत्पादन की ऐसी शाखाओं में स्थायी पूंजी चालू ख़र्च के साथ चाहे संयुक्त हो, चाहे न हो, उसका वेकार पड़े रहना उसके सामान्य नियोजन की वैसे ही शर्त है, जैसे , मसलन, कताई के समय रूई की एक निश्चित मात्रा की हानि । उसी तरह सामान्य तकनीकी परिस्थि- तियों में जो श्रम शक्ति किसी श्रम प्रक्रिया में अनुत्पादक , किंतु अनिवार्य रूप में खर्च की जाती है, उसका शुमार उत्पादक रूप में ख़र्च की हुई श्रम शक्ति की तरह ही होता है। जिस सुधार से भी श्रम उपकरणों, कच्चे माल और श्रम शक्ति का अनुत्पादक व्यय घटता है, उससे उत्पाद का मूल्य भी घटता है। कृषि में अधिक लंवी कार्य अवधि और कार्य काल तथा उत्पादन काल में भारी अंतर दोनों का संयोग होता है। हॉस्किन ठीक ही कहते हैं : “खेती के तथा श्रम के अन्य रूपों के उत्पाद को पूरा करने में लगनेवाले समय का अंतर" ( यद्यपि उन्होंने यहां कार्य काल और उत्पादन काल में भेद नहीं किया है ) “कृषिकर्मियों की जवरदस्त पराधीनता का मुख्य कारण है। वे अपना माल साल से कम समय में वाज़ार में नहीं ला सकते। इस सारी अवधि में उन्हें मजबूरन मोची, दरजी, लुहार, छकड़ा बनानेवाले तथा विभिन्न अन्य कारीगरों का उधार करना पड़ता है, जिनके उत्पाद के विना उनका काम नहीं चलता , किंतु जो कुछ दिनों या हफ्तों में तैयार हो जाता है। इस स्वाभाविक परिस्थिति के कारण तथा कृपि के अलावा अन्य श्रम द्वारा संपदा की ज्यादा तेज वृद्धि के कारण सारी जमीन पर अपना एकाधिकार जमा लेनेवाले- यद्यपि उन्होंने कानून बनाने पर भी इजारा कायम कर लिया है-खुद को और अपने चाकरों, फ़ार्मरों को समाज में मनुष्यों का सबसे पराधीन वर्ग बनने से बचा नहीं सकते हैं" ( टॉमस हॉस्किन , Popular Political Economy, लंदन, , १८२७, पृष्ठ १४७, टिप्पणी)। कृपि में वे सभी तरीके, जिनके द्वारा एक ओर मजदूरी और श्रम उपकरणों पर खर्च को सारे वर्ष की अवधि में अधिक समरूप से वितरित किया जाता है, जब कि ज्यादा किस्मों की फ़सलें उगाकर यावर्त को छोटा किया जाता है, जिससे वारहों मास विभिन्न फ़सलें संभव . .