पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१५८

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स्थायी पूंजी तथा प्रचल पूंजी १५७ २. स्थायी पूंजी के संघटक अंश , प्रतिस्थापना, मरम्मत तथा संचय 1 . पूंजी के किसी भी निवेश में स्थायी पूंजी के पृथक तत्वों का जीवन काल भिन्न-भिन्न होता है, अतः उनका आवर्त काल भी भिन्न-भिन्न होता है। उदाहरण के लिए, रेलवे में, रेल की पटरियों, स्लीपरों, धुस्सों, स्टेशनों, पुलों, सुरंगों, इंजनों और डिब्बों की कार्य अवधि तथा उनके पुनरुत्पादन काल और इसलिए उनके लिए पेशगी दी पूंजी के आवर्त काल भी भिन्न-भिन्न होते हैं। बहुत साल तक इमारतों, प्लैटफ़ार्मो, टंकियों, मार्ग सेतुओं, सुरंगों, कटानों, बांधों-संक्षेप में उन सब चीजों को जिन्हें इगलैंड के रेल उद्यम में “works of art" कहा जाता है, किसी तरह के नवीकरण की दरकार नहीं होती। जो चीजें सबसे ज्यादा छीजती हैं, वे रेल की पटरियां और चल स्टॉक - गाड़ियां - हैं। शुरू में आधुनिक रेलमार्गों में प्रचलित और प्रमुखतम व्यवहारकुशल इंजीनियरों द्वारा पोपित धारणा यह थी कि एक रेलमार्ग एक शताब्दी चलेगा और पटरियों की टूट-फूट इतनी सूक्ष्म होगी कि सभी वित्तीय तथा अन्य व्यावहारिक मामलों में उसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता था; पटरियों का जीवन काल सी से डेढ़ सौ साल माना जाता था। किन्तु जल्दी ही पता चला कि रेलमार्ग की ज़िन्दगी, जो स्वभावतः इंजनों की रफ्तार , रेलगाड़ियों की संख्या और उनके वज़न , पटरियों के व्यास और ऐसी ही बहुत सी अन्य सम्बद्ध परिस्थितियों पर निर्भर करती है, औसतन बीस साल से ज्यादा नहीं होती। कुछ रेलवे जंक्शनों, यातायात के बड़े केन्द्रों में पटरियां हर साल ही छीज जाती हैं। १८६७ के आसपास इस्पात की पटरियों का चलन शुरू हुआ। इनकी लागत लोहे की पटरियों से दुगनी थी, लेकिन वे उनसे दुगना चलती भी थीं। लकड़ी के स्लीपरों का जीवन काल वारह से पन्द्रह साल तक था। चल स्टॉक के बारे में भी पता चला कि मुसाफ़िर गाड़ियों की अपेक्षा माल गाड़ी के डिब्बे ज्यादा जल्दी छीजते हैं। १८६७ में एक इंजन का जीवन काल दस से वारह साल तक आंका गया था। टूट-फूट सबसे पहले इस्तेमाल का नतीजा होता है। साधारणतः पटरियों की छीजन गाड़ियों की संख्या के अनुपात में होती है" (आर० सी० , क्रमांक १७६४५)। 22 गति की वढ़ती के साथ , रेलमार्ग की छीजन गति के वर्गफल की अपेक्षा उच्चतर अनुपात में वढ़ती है, अर्थात यदि इंजन की रफ़्तार दुगनी कर दी जाये , तो रेलमार्ग की छीजन चौगुने से ज्यादा बढ़ जायेगी (आर० सी०, क्रमांक १७०४६)। इसके अलावा प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव से भी टूट-फूट होती है। मिसाल के लिए, स्लीपर वास्तव में छिजाई से ही नहीं, सड़ने से भी नष्ट होते हैं। " रेलमार्ग के रख-रखाव की लागत उस पर से गुजरनेवाले यातायात द्वारा हुई टूट-फूट पर इतना निर्भर नहीं करती, जितना वातावरण के प्रभाव में अनावृत्त लकड़ी, लोहे , ईटों और मसाले के बढ़िया-घटिया होने पर। एक महीने की सख़्त वारिश से रेलमार्ग का जितना नुकसान होगा, उतना साल भर के ac . जिन उद्धरणों के बाद पार० सी० लिखा है वे Royai Commission on Railways. Minutes of Evidence taken before the Commissioners. Presented to both Houses of Parliament, London, 1867-से हैं। प्रश्न और उत्तर क्रम संख्या में हैं और यहां क्रमांक दिये गये हैं।