पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/११२

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परिपथ के तीन सूत्र १११ - . 1 ग्रौद्योगिक पूंजी के, और इसलिए पूंजीवादी उत्पादन के परिपयों की गति की एक बहुत स्पष्ट विशेषता यह तथ्य है कि एक ओर उत्पादक पूंजी के संघटक तत्व मालों के रूप में खरीद कर माल वाज़ार से प्राप्त किये जाते हैं और उनका उसी से निरंतर नवीकरण करना होता है; और दूसरी ओर श्रम प्रक्रिया का उत्पाद उसमें से माल की हैसियत से निकलता है, और उसे माल की हैसियत से ही फिर से निरंतर वेचना होता है। उदाहरण के लिए, स्कॉच लोलैंड्स के किसी आधुनिक कृपक से महाद्वीपीय यूरोप के किसी पुराने ढंग के छोटे किसान की तुलना कीजिये। पूर्वोक्त अपनी सारी उपज बेच देता है, इसलिए उसे उसके सारे तत्वों, अपने वीज तक की बाज़ार में प्रतिस्थापना करनी होती है। अंतोवत अपनी उपज के अधिकांश का सीधा उपभोग कर डालता है, यथासंभव कम से कम वेचता और ख़रीदता है, अपने औजार, कपड़े, वगैरह, जहां तक हो पाता है, ख द ही बनाता है। अतः नैसर्गिक अर्थव्यवस्था, द्रव्य अर्थव्यवस्था और साख अर्थव्यवस्था सामाजिक उत्पादन की गति के तीन विशिष्ट आर्थिक रूप होने के नाते एक दूसरे के मुकाबले में देखे जा रहे हैं। पहली बात , ये तीनों रूप विकास के तुल्य दौर व्यक्त नहीं करते। तथाकथित साख अर्थव्यवस्था द्रव्य अर्थव्यवस्था का एक रूप मान है, क्योंकि ये दोनों शब्द स्वयं उत्पादकों के वीच होनेवाले विनिमय कार्य अथवा विनिमय पद्धतियां व्यक्त करते हैं। विकसित पूंजीवादी उत्पादन में द्रव्य अर्थव्यवस्था साख अर्थव्यवस्था के आधार की हैसियत से ही प्रकट होती है। इस प्रकार द्रव्य अर्थव्यवस्था तथा साख अर्थव्यवस्था केवल पूंजीवादी उत्पादन के विकास की विभिन्न मंजिलों के ही अनुरूप हैं ; किंतु नैसर्गिक अर्थव्यवस्था के मुकावले वे विनिमय के स्वतंत्र रूप किसी प्रकार नहीं हैं। इसी तर्क के आधार पर तो नैसर्गिक अर्थव्यवस्था के एकदम भिन्न रूपों को भी इन अर्थव्यवस्थाओं के तुल्यों की तरह रखा जा सकता है। दूसरे, चूंकि द्रव्य अर्थव्यवस्था और साख अर्थव्यवस्था - इन दोनों संवर्गों के विशिष्ट लक्षण के रूप में जिस वात पर जोर दिया गया है, वह अर्थव्यवस्था , अर्थात स्वयं उत्पादन प्रक्रिया नहीं, उस अर्थव्यवस्था के अनुरूप उत्पादन के विभिन्न कर्ताओं अथवा उत्पादकों के बीच विनिमय की पद्धति है, इसलिए यही बात पहले संवर्ग पर भी लागू होनी चाहिए। इसीलिए नैसर्गिक अर्थव्यवस्था की जगह विनिमय अर्थव्यवस्था आती है। पूर्णतः वियुक्त नैसर्गिक अर्थव्यवस्था , उदाहरणार्थ, पीरू का इंका राज्य इनमें से किसी संवर्ग अंतर्गत न पाती। तीसरे, द्रव्य अर्थव्यवस्था समस्त माल उत्पादन के लिए लाक्षणिक है और उत्पाद सामाजिक उत्पादन के एकदम भिन्न संघटनों में माल की तरह प्रकट होता है। फलतः जो चीज़ पूंजीवादी उत्पादन की विशेषता दिखाती है, वह सिर्फ यही है कि उत्पाद किस सीमा तक वाणिज्य पदार्थ के , माल के रूप में बनाया जाता है और इसलिए किस सीमा तक उसके अपने संघटक तत्व उस अर्थव्यवस्था में, जिससे वह उत्पन्न होता है, वाणिज्य पदार्थ के, माल के रूप में अनिवार्यतः पुनः प्रवेश करेंगे। वास्तव में उत्पादन के सामान्य रूप की हैसियत से पूंजीवादी उत्पादन माल उत्पादन है। किंतु वह केवल इसलिए ऐसा है और लगातार होता जाता है कि यहां स्वयं श्रम माल की हैसियत से प्रकट होता है, इसलिए कि श्रमिक अपना श्रम, अर्थात अपनी श्रम शक्ति का कार्य वेचता है, और हमारी पूर्वकल्पना यह है कि वह उसे उसके मूल्य पर वेचता है, जो उसकी पुनरुत्पादन लागत द्वारा निर्धारित होता है। वह श्रम जिस सीमा तक उजरती श्रम वन जाता है, उस सीमा तक उत्पादक प्रौद्योगिक पूंजीपति बन जाता है। इसीलिए पूंजीवादी उत्पादन