पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१०३

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१०२ पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपथ . समक्षणिकता संभव हो जाती है। प्रत्येक रूप दूसरे का अनुवर्ती और पूर्ववर्ती भी होता है, जिससे पूंजी का एक भाग जब किसी रूप में वापस आता है, तो किसी अन्य भाग का किसी अन्य रूप में पाना भी अनिवार्य हो जाता है। प्रत्येक भाग निरंतर अपना ही चक्र सम्पन्न करता है, किंतु वह इस रूप में पूंजी का सदैव अन्य भाग ही होता है, और ये विशेष चक्र समग्र प्रक्रिया के ममक्षणिक तथा प्रानुक्रमिक तत्व मात्र होते हैं। उपरिवर्णित अंतरायण के स्थान पर समग्र प्रक्रिया की निरंतरता तीनों परिपथों की एकान्विति द्वारा ही उपलब्ध होती है। समग्र सामाजिक पूंजी में यह निरंतरता सदैव होती है और उसकी प्रक्रिया सदैव तीनों परिपथों की एकान्विति प्रदर्शित करती है। जहां तक वैयक्तिक पूंजियों का संबंध है, पुनरुत्पादन की निरंतरता न्यूनाधिक मात्रा में यदा-कदा भंग हो जाती है। एक तो विभिन्न कालावधियों में मूल्य राशियां विभिन्न मंजिलों और कार्य रूपों के दौरान बहुधा असमान भागों में वितरित होती हैं। दूसरे , ये भाग उत्पादित माल के स्वरूप के अनुसार , अतः उत्पादन के उस विशेष क्षेत्र के अनुसार , जिसमें पूंजी लगाई गई है , भिन्नरूपेण वितरित किये जा सकते हैं। तीसरे , न्यूनाधिक मात्रा में उत्पादन की उन शाखाओं में निरंतरता भंग हो सकती है, जो - प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण (खेती , मछली पकड़ना, वगैरह ) अथवा परिपाटिक परिस्थितियों के कारण , जैसे कि तथाकथित मौसमी काम - ऋतुओं पर निर्भर होते हैं। खानों और कल-कारखानों में यह प्रक्रिया नितांत नियमित ढंग से और एकरूपता के साथ चलती है। किंतु उत्पादन की विभिन्न शाखायों के इस भेद से परिपथ प्रक्रिया के सामान्य रूपों में कोई भेद उत्पन्न नहीं होता। स्वविस्तारमान मूल्य की हैसियत से पूंजी अपनी परिधि में केवल वर्ग सम्बन्ध , उजरती श्रम के रूप में श्रम के अस्तित्व पर प्रतिष्ठित एक निश्चित स्वरूप के समाज को ही नहीं लाती। वह एक गति , विभिन्न मंजिलों से गुजरनेवाली परिपथीय प्रक्रिया है, स्वयं जिसमें परिपथीय प्रक्रिया के तीन विभिन्न रूप समाहित होते हैं। अतः उसका बोध गति रूप में ही हो सकता है, स्थिर पदार्थ के रूप में नहीं। जो लोग समझते हैं कि मूल्य द्वारा स्वतंत्र अस्तित्व की उपलब्धि एक अमूर्त धारणा मान्न है, यह भूल जाते हैं कि आद्योगिक पूंजी की गति in actu [यिया रूप में] यह अमूर्त धारणा ही है। यहां मूल्य उन अनेक रूपों से , अनेक गतियों से गुजरता है, जिनमें वह अपने को कायम रखता है और साथ ही प्रसारित और परिवर्धित होता है। यहां हमें चूंकि मूलतः इस गति के रूप मात्र से सरोकार है, इसलिए हम उन परिक्रमणों पर विचार नहीं करेंगे, जिन्हें अपने परिपथ के दौरान पूंजी मूल्य सम्पन्न कर सकता है। किंतु यह स्पष्ट है कि मूल्य के समस्त आमूल परिवर्तनों के बावजूद पूंजीवादी उत्पादन का अस्तित्व और टिक पाना तभी तक संभव है कि जब तक पूंजी मूल्य से बेशी मूल्य की उत्पत्ति कराई जा सकती है, अर्थात जब तक वह अपना परिपथ उस मूल्य की हैसियत से सम्पन्न करता है, जिसने अपनी स्वतंत्रता हासिल कर ली है, अतः जब तक मूल्य के ग्रामूल परिवर्तन किसी प्रकार वशीभूत कर लिये और साम्यावस्था में ले पाये जाते हैं। पूंजी की गतियां किसी वैयक्तिक प्रौद्योगिक पूंजीपति की क्रियाएं लगती हैं, जो माल और श्रम के ग्राहक के , मालों के विग्रेता और उत्पादकः पूंजी के स्वामी के कार्य करता है, अतः जो अपनी क्रियाशीलता द्वारा परिपथ को प्रेरित करता है। यदि सामाजिक पूंजी मूल्य में आमूल परिवर्तन का अनुभव करे, तो यह संभव है कि वैयक्तिक पूंजीपति की पूंजी उससे पराभूत हो जाये और विफल हो जाये , इसलिए में कि मूल्यों की इस गति की परिस्थितियों के अनुरूप वह स्वयं को नहीं ढाल सकती। मूल्य ,