माल है। लेकिन प्रशास्त्र ने यह सवाल एक बार भी नहीं उगया है कि श्रम का प्रतिनिधित्व उसकी पैदावार का मूल्य और श्रम-काल का प्रतिनिधित्व उस मूल्य का परिमाण क्यों करते हैं।' जिन सूत्रों पर साफ तौर पर इस बात की छाप देखी जा सकती है कि वे समाज को एक ऐसी अवस्था सम्बंध रखते हैं, जिसमें उत्पादन की क्रिया मनुष्य द्वारा नियंत्रित होने के बजाय उसके ऊपर शासन करती है,-ये सूत्र पूंजीवादी बुद्धि को प्रकृति द्वारा अनिवार्य बना दी गयी वैसी ही स्वतःस्पष्ट मावश्यकता लगते हैं, जैसी मावश्यकता खुद उत्पादक श्रम है। . . . किया है, और यदि उनका कोई मूल्य है या यदि उनके दो अलग-अलग ढंग के मूल्य भी है, तो वे केवल उस श्रम के मूल्य से ही निकले हैं, जिससे ये वस्तुएं निकली हैं।" (Ricardo, "The Principles of Political Economy" [रिकार्डो, 'अर्थशास्त्र के सिद्धान्त'], तीसरा संस्करण, London, 1821, पृ० ३३४।) हम यहां पर केवल यही कह सकते हैं कि रिकार्डो ने देस्तूत के शब्दों को खुद अपनी, अधिक गूढ, व्याख्या पहना दी है। देस्तूत सचमुच जितनी बात कहते हैं, वह यह है कि एक तरफ़ तो धन कहलाने वाली तमाम चीजें उस श्रम का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसने उनको पैदा किया है, लेकिन , दूसरी तरफ़ , वे अपने "दो अलग-अलग ढंग के मूल्यों" (उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य) को “श्रम के मूल्य से" प्राप्त करती हैं। इस प्रकार वह उन घटिया किस्म के अर्थशास्त्रियों की प्राम भद्दी ग़लती को ही दोहराते हैं, जो बाक़ी 'मालों का मूल्य निर्धारित करने के लिये एक माल का (यहां पर श्रम का) खद कुछ मूल्य मान लेते हैं। लेकिन रिकार्डो देस्तूत के शब्दों को इस तरह पढ़ते हैं, जैसे उन्होंने यह कहा हो कि श्रम (न कि श्रम का मूल्य) उपयोग मूल्य तथा विनिमय-मूल्य दोनों में निहित होता है। फिर भी रिकार्डो ने खुद श्रम के दोहरे स्वरूप की भोर, जो दोहरे ढंग से मूर्त रूप प्राप्त करता है, इतना कम ध्यान दिया है कि अपना "Value and Riches, Their Distinctive Properties” (The MTXT, उनके अलग-अलग गुण') शीर्षक का पूरा अध्याय उन्होंने जे० बी० से जैसे व्यक्ति की तुच्छ बातों की श्रमपूर्ण समीक्षा करने में खर्च कर डाला, और उसके अन्त में उनको यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ है कि देस्तूत एक तरफ़ तो उनसे इस बात में सहमत हैं कि मूल्य का स्रोत श्रम है, और दूसरी तरफ़ वह मूल्य की धारणा के सम्बंध में जे० बी० से से सहमत है। 'प्रामाणिक अर्थशास्त्र की यह एक मुख्य कमजोरी है कि मालों का और, खास तौर पर, उनके मूल्य के विश्लेषण द्वारा वह कभी यह नहीं पता लगा पाया है कि मूल्य किस रूप के अन्तर्गत विनिमय-मूल्य बन जाता है। यहां तक कि ऐडम स्मिय और रिकार्डो भी, जो कि इस धारा के सर्वोत्तम प्रतिनिधि है, मूल्य के रूप को महत्त्वहीन चीज समझते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में मालों के मौलिक स्वभाव से उसका कोई सम्बंध नहीं है। इसका केवल यही कारण नहीं है कि उनका सारा ध्यान महज मूल्य के परिमाण के विश्लेषण पर केन्द्रित हो गया है। इसका असली कारण और गहरा है। श्रम की पैदावार का मूल्य-रूप उसका न केवल सबसे अमूर्त रूप है, बल्कि पूंजीवादी उत्पादन के अन्तर्गत वह उस पैदावार का सबसे अधिक सार्वत्रिक रूप होता है, और यह रूप इस उत्पादन को सामाजिक उत्पादन की एक खास किस्म बना देता है और इस प्रकार उसे उसका विशिष्ट ऐतिहासिक स्वरूप प्रदान कर देता है। प्रतएव, यदि हम उत्पादन की इस प्रणाली को एक ऐसी प्रणाली समझ बैठते है, जिसे प्रकृति .
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