माल . पाइये, अब तनिक परिवर्तन के लिये स्वतंत्र व्यक्तियों के एक ऐसे समाज की कल्पना करें, जिसके सदस्य साले के उत्पादन के साधनों से काम करते हैं और जिसमें तमाम अलग- अलग व्यक्तियों की श्रमशक्ति को सचेतन ढंग से समाज को संयुक्त श्रम-शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इस समाज में रोबिन्सन के श्रम की सारी विलक्षणतायें फिर से दिखाई देती हैं, लेकिन इस अन्तर के साथ कि यहाँ ये व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होती है। रोबिन्सन वो कुछ भी पैदा करता था, वह केवल उसके अपने व्यक्तिगत श्रम का फल होता था, और इसलिये वह महज उसके अपने इस्तेमाल की चीज होता था। हमारे इस समाज की कुल पैदावार सामाजिक होती है। उसका एक हिस्सा उत्पादन के नये साधनों के रूप में काम में माता है और इसलिये सामाजिक ही रहता है। लेकिन एक दूसरे हिस्से का समाज के सदस्य बीवन-निर्वाह के साधनों के रूप में उपभोग करते हैं। चुनांचे, इस हिस्से का उनके बीच बंटवारा मावश्यक होता है। इस बंटवारे की पत्ति समाज के उत्पादक संगठन के बदलने के साथ और उत्पादकों के ऐतिहासिक विकास की अवस्था के अनुरूप बदलती जायेगी। हम मान लेते हैं-मगर हम मालों के उत्पादन के साथ मुकाबला करने के लिये ही ऐसा मान रहे हैं-कि जीवन-निर्वाह के साधनों में उत्पादन करने वाले हर अलग-अलग व्यक्ति का हिस्सा उसके श्रम-काल द्वारा निर्धारित होता है। इस सूरत में श्रम-काल बोहरी भूमिका अदा करेगा। जब एक निश्चित सामाजिक योजना के अनुसार उसका बंटवारा किया जाता है, तब उसके बारा अलग-अलग ढंग के कामों तथा समाज की विभिन्न प्रावश्यकताओं के बीच वही अनुपात कायम रखा जाता है। दूसरी मोर, वह इस बात की माप का काम भी देता है कि हर व्यक्ति के कंधों पर सम्मिलित श्रम के कितने भाग का भार पड़ा है और समाज के सदस्यों के व्यक्तिगत उपभोग के लिये निश्चित किये गये कुल पैदावार के भाग का हर व्यक्ति को कितना अंश मिलना चाहिये। इस सूरत में उत्पादन करने वाले अलग-अलग व्यक्तियों के श्रम तथा उनको पैदा की हुई वस्तुओं, इन दोनों दृष्टियों ही से उनके सामाजिक सम्बन्ध अत्यन्त सरल पौर सहज ही समझ में आ जाने वाले होते हैं, और यह बात न केवल उत्पादन के लिये, बल्कि वितरण के लिये भी सच होती है। धार्मिक दुनिया वास्तविक दुनिया का प्रतिविम्ब मात्र होती है। और मालों के उत्पादन पर पाषारित समाज के लिये, जिसमें उत्पादन करने वाले लोग पाम तौर पर अपने श्रम से उत्पन्न वस्तुओं को मालों तथा मूल्यों के रूप में इस्तेमाल करके एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बंध स्थापित करते हैं और इस तरह अपने व्यक्तिगत एवं निजी श्रम को सजातीय मानव- मन के मानवम में परिवर्तित कर देते हैं, ऐसे समाज के लिये अमूर्त मानव को पूजने वाला ईसाई धर्म, खासकर अपने पूंजीवादी सों में-प्रोटेस्टेंट मत, देहम पावि में,-सबसे उपयुक्त धर्म है। उत्पादन की प्राचीन एशियाई प्रणाली तथा अन्य प्राचीन प्रणालियों में हम यह पाते हैं कि पैदावार के मालों में बदल जाने और इसलिये मनुष्यों के मालों के उत्पादकों में बदले जाने का गौण स्थान होता है, हालांकि जैसे-जैसे मादिम समान विसर्जन के अधिकाधिक निकट पहुंचते जाते हैं, वैसे-वैसे इस बात का महत्त्व बढ़ता जाता है। जिनको सचमुच व्यापारी जातियों का नाम दिया जा सकता था, ऐसी जातियां प्राचीन संसार में केवल बीच-बीच की वाली जगहों में ही पायी जाती थी, जैसे एपीक्यूरत के देवता दो लोकों के बीच के स्थान में रहते थे या से यहूदी लोग पोल समाज के त्रिों में छिपे रहते थे। पूंजीवादी समाज की तुलना में उत्पादन के प्राचीन सामाजिक संघटन अत्यन्त सरल और सहन ही समय में मा . .
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