माल ८९ . ये उससे भी बह कुहासा नहीं छंटता, जिसके पावरण से का हुमा मन का सामाजिक स्वरूप हमें पुरा श्रम से उत्पन्न वस्तुओं का भौतिक गुण प्रतीत होता है। यह तय कि उत्पादन के जिस खास रूम पर हम विचार कर रहे हैं, उसमें-यानी मालों के उत्पादन में-स्वतंत्र रूप से किये जाने वाले निजी श्रम का विशिष्ट सामाजिक स्वरूप इस बात में निहित होता है कि इस प्रकार का प्रत्येक मम मानव-यम होने के नाते एक दूसरे के समान होता है और इसलिए श्रम का यह सामाजिक स्वरूप पैदावार में मूल्य का रूप धारण कर लेता है,-यह तन्य उत्पादकों को उपर्युक्त माविष्कार के बावजूब उतना ही पवार्य और अन्तिम प्रतीत होता है, जितना यह तव्य कि वायु जिन गैसों से मिलकर बनी है, उनका विज्ञान द्वारा प्राविष्कार हो जाने के बाद भी जुब वायुमण्डल में कोई परिवर्तन नहीं होता। जब उत्पादक लोग कोई विनिमय करते हैं, तब व्यावहारिक रूप में उन्हें सबसे पहले इस बात की चिन्ता होती है कि अपनी पैदावार के बदले में उन्हें कोई और पैदावार कितनी मिलेगी? या विभिन्न प्रकार की पैदावार का किन अनुपातों में विनिमय हो सकता है? जब अनुपात रीति और रिवाज के प्राधार पर कुछ स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं, तब ऐसा लगता है, वे अनुपात उत्पादित वस्तुओं की प्रकृति से उत्पन्न हो गये हों। मिसाल के लिए, तब एक टन लोहे और दो प्रॉस सोने का मूल्य में बराबर होना उतनी ही स्वाभाविक बात लगती है, जितनी यह बात कि दोनों वस्तुओं के भिन्न-भिन्न भौतिक एवं रासायनिक गुणों के बावजूद एक पौड सोना और एक पोम लोहा बजन में बराबर होते हैं। जब एक बार मम से उत्पन्न वस्तुएं मूल्य का गुण प्राप्त कर लेती है, तब यह गुण केवल मूल्य की मात्राओं के रूप में इन वस्तुओं की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया से स्थिरता प्राप्त करता है। मूल्य की ये मात्राएं बराबर बदलती रहती है। ऐसी तबीलियां उत्पादकों की इच्छा, दूरदर्शिता और कार्य-कलाप से स्वतंत्र होती हैं। उत्पादकों के लिए उनका अपना सामाजिक कार्य-कलाप वस्तुओं के कार्य- कलाप का रूप धारण कर लेता है और वस्तुएं उत्पादकों के शासन में रहने के बजाय उलटे उनपर शासन करने लगती हैं। जब मालों का उत्पादन पूरी तरह विकसित हो जाता है, उसके बाद ही केवल संचित अनुभव से यह वैज्ञानिक विश्वास पैदा होता है कि एक दूसरे से स्वतंत्र और फिर भी सामाजिक मन की स्वयंस्फूर्त ढंग से विकसित शासानों के रूप में किये जाने बाले निजी भम के विभिन्न प्रकार लगातार उन परिमाणात्मक अनुपातों में परिणत होते रहते हैं, जिनमें समाज को मम के इन विभिन्न प्रकारों की आवश्यकता होती है। और ऐसा क्यों होता रहता है? इसलिए कि मन से पैरा होने वाली वस्तुओं के तमाम प्राकस्मिक और सवा पड़ते-उतरते रहने वाले विनिमय-सम्बंधों के बीच उनके उत्पादन के लिए सामाजिक दृष्टि से मावश्यक मम-काल प्रकृति के किसी उच्चतर नियम की भांति बलपूर्वक अपनी सत्ता का प्रदर्शन करता है। जब कोई मकान भरराकर गिर पड़ता है, तब गुरुत्व का नियम भी इसी तरह अपनी सत्ता का प्रदर्शन करता है। प्रतएव मूल्य के परिमाण का धमकाल द्वारा निर्धारित 1"ऐसे नियम के बारे में हम क्या सोचें, जो केवल नियतकालिक क्रान्तियों के द्वारा ही अपनी सत्ता का प्रदर्शन करता है? वह प्रकृति के नियम के सिवा और कुछ नहीं है, जिसका माधार उन व्यक्तियों का मानाभाव होता है, जिनके कार्यों से वह नियम सम्बंध quan t." (Friedrich Engels: "Umrisse zu einer Kritik der Nationalökonomie"; Amold Ruge at Karl Marx aTTT FYRET "Deutsch-Französische Jahrbücher”, Paris, 1844.)
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