८६२ पूंजीवादी उत्पादन . - . - करने की इच्छा से मातुर पूंजी को प्रॉकती जाती है। दूसरी मोर, मजदूरी पर काम करने बाले मजदूर का मखदूरी पर काम करने वाले मजदूर के रूप में नियमित पुनरुत्पावन अत्यन्त पृष्ट एवं प्रांशिक स से प्रजेय बापामों से टकराता रहता है। ऐसी परिस्थिति में पूंजी के संचय के अनुपात से अधिक मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों के उत्पादन का क्या होता है ? पान मो मजदूरी पर काम करने वाला मजबूर है, वह कल को खुद अपने लिये काम करने वाला स्वतंत्र किसान या बस्तकार बन जाता है। वह बम की मन्दी से तो गायब हो जाता है, परन्तु मुहताणलाने में नहीं जाता। मजदूरी पर काम करने वाले मजदूर इस तरह लगातार स्वतंत्र उत्पादकों में बदलते जाते हैं, जो पूंजी के लिये नहीं, बल्कि खुद अपने लिये काम करते हैं और वो पूंजीवादी भा पुरुषों का धन बढ़ाने के लिये नहीं, बल्कि र धनी बनने लिये काम करते हैं। और इस अनवरत रूपान्तरण का मम की मन्दी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। न केवल मजदूरों के शोषण की मात्रा सारी मर्यादा को त्यागकर सदा बहुत कम ही बनी रहती है, बल्कि, इसके अतिरिक्त, 1, मजदूर चूंकि पराधीनता के सम्बंध से वंचित रहता है, इसलिये उसके हृदय में मितव्ययी पूंजीपति पर निर्भर रहने को तनिक भी इच्छा नहीं रहती। इसी से वे तमाम प्रसुविधाएं पैदा होती है जिनका हमारे बेकफील महोदय ने इतनी हिम्मत के साथ, इतने शब-चातुर्य के साब और इतने हदयस्पर्शी ढंग से वर्णन किया है। वह शिकायत करते हैं कि मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों की पूर्ति न तो स्थिर रहती है, न नियमित ढंग से होती है और न ही पर्याप्त समानी जा सकती है। "मम की पूर्ति सदा ही न केवल बहुत कम, बल्कि बहुत अनिश्चित भी रहती है।"1" "पूंजीपति और मजदूर के बीच विभाजित होने वाली पैदावार यदि बहुत अधिक है, तो भी उसमें मजदूर का हिस्सा इतना बड़ा होता है कि वह शीघ्र ही पूंजीपति बन जाता है...जो असाधारण रूप से लम्बा जीवन पाते हैं, उनमें से भी बहुत कम लोग धन की कोई बड़ी राशि जमा कर पाते हैं।" मतलब यह कि मजदूर पूंजीपति को साफ तौर पर इसकी इजाजत नहीं देते कि वह उनके अधिकांश मन की कीमत देने के मामले में भी "परिवर्जन" का परिचय है। यदि पूंजीपति यह चतुराई करता है कि पूंजी के साथ-साथ मजदूरी पर काम करने वाले मजदूर भी योरप से मंगा लेता है, तो भी उसका कोई फायदा नहीं होता। ये मखदूर भी बल्ब ही "मजदूरी करना...बन्द कर देते हैं। के... यदि मन की मन्नी में अपने भूतपूर्व मालिकों के प्रतियोगी नहीं बनते, तो स्वतंत्र भूस्वामी बन जाते हैं। सरापरिस्थितिकी भयानकता पर तो विचार कीजिये। बेचारा पूंजीपति अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करके योरप से कुछ भावनियों को मंगवाता है; ने वहां पहुंचकर पर उसी के प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं। यह सर्वनाश नहीं, तो और क्या है? कोई पाश्चर्य नहीं, यदि वेकशील को इस बात का बहुत दुख है कि उपनिवेशों में किसी भी प्रकार की पराधीनता नहीं है और वहां के मजदूरों में पराधीनता या परनिर्भरता के लिये परा भी स्नेह नहीं पाया जाता। कफील के शिष्य मेरीबेन ने कहा है कि मजदूरी की दरें अंची होने के कारण उपनिवेशों में "ऐसे मजदूर पाने की प्रत्यधिक बाह है, जो अधिक सस्ते हों और अधिक मानाकारी हों। पानी वहां फौरन एक ऐसा वर्ग चाहिये, जिसका हुक्म पूंजीपतियों को 113 1 उप० पु., बण्ड २, पृ० ११६ । 'उप. पु., बण्ड १, पृ० १३१ । 'उप. पु., बण्ड २, पृ० ५।
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/८६५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।