जिन लोगों की सम्पत्ति छीन ली गयी, उनके खिलाफ खूनी कानूनों का बनाया जाना २२९ मजदूरों के संगठनों पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों को हस्तनिर्माणों पर भी लागू कर जिसे सचमुच हस्तनिर्माण का काल कहा जा सकता है, उस काल में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली इतनी काफी मजबूत हो गयी थी कि मजदूरी का कानून बनाकर नियमन करना जितना अनावश्यक, उतना ही अव्यावहारिक भी हो गया था। लेकिन शासन करने वाले वर्ग इसके लिये तैयार नहीं थे कि बरत के वक्त इस्तेमाल करने के लिये भी उनके तरफा में ये पुराने तीर न रहें। इसलिये, जार्ज दूसरे के कानून के अनुसार लन्दन में और मास-पास बीगीरी का काम करने वाले मजदूरों को २ शिलिंग ७: पेन्स से प्रषिक मजदूरी देने की २ मनाही कर दी गयी थी। केवल सामान्य शोक के समय ही इससे अधिक मजबूरी बीमा सकती थी। जा तीसरे के राज्य-काल के १३ वें वर्ष में बनाये गये एक कानून के ६८ अन्याय के मातहत रेशम की बुनाई करने वाले मजदूरों की मजदूरी का नियमन करने की जिम्मेवारी स्थानीय मजिस्ट्रेटों को दे दी गयी थी। उसके भी बाब, १७९६ में, उच्चतर न्यायालयों के बो निर्णयों के बार कहीं यह प्रश्न ते हो पाया था कि स्थानीय मजिस्ट्रेटों का मजदूरी का नियमन करने का अधिकार और खेतिहर मजदूरों पर भी लागू होता है या नहीं। इसके भी बाब, १७९६ में, संसद ने एक कानून बनाकर यह मादेश दिया था कि स्काट जान-मजदूरों की मजबूरी का नियमन एलिजावेष के परिनियम और १६६१ तथा १६७१ के दो स्काट कानूनों 11 कारखानों में जबर्दस्ती सरकारी तौर पर मजदूरी की दरें निश्चित कर दी थीं। जर्मनी में, खास कर तीसवर्षीय युद्ध के बाद, मजदूरी को बढ़ने से रोकने के लिये कानून बनाना एक माम बात थी। " उजड़े हुए इलाकों में नौकरों और मजदूरों की कमी से भू-स्वामियों को बहुत कष्ट हो रहा था। चुनांचे तमाम गांववालों को पादेश दिया गया कि अविवाहित पुरुषों और स्त्रियों को कोठरियां किराये पर मत दो, बल्कि इन सब की अधिकारियों को सूचना दो। यदि ये लोग नौकरी करने को राजी नहीं होंगे, तो उनको जेल में डाल दिया जायेगा। अगर वे कोई और काम कर रहे हैं, -मान लीजिये, वे किसानों से रोजाना मजदूरी लेकर बुवाई कर रहे है या अनाज की बरीदारी और बिक्री कर रहे हैं, तो भी यह नियम लागू होगा। ("Kaiserliche Privilegien und Sanctionen für Schlesien" ('Erectiferum o ferat सम्राट् के विशेष प्रादेश और माशाएं'], बण्ड १,२५) "छोटे-छोटे जर्मन राजामों के प्रादेशों में पूरी एक शताब्दी तक हमें बार-बार यह कटु शिकायत सुनने को मिलती है कि बदमाश और बदतमीज लोगों की भीड़ अपने फूटे हुए भाग्य पर सब करके नहीं बैठती और कानूनी मजदूरी से संतोष नहीं करती। राज्य ने जो दरें निश्चित कर दी थीं, कोई भू-स्वामी व्यक्तिगत रूप से उनसे अधिक मजदूरी नहीं दे सकता था। और फिर भी युद्ध के बाद नौकरी की शर्ते कभी-कभी इतनी अच्छी होती थी कि उसके सौ वर्ष बाद भी उतनी अच्छी शर्तों पर नौकरी नहीं मिलती थी। १६५२ में साइलीसिया के बेत-मजदूरों को हफ्ते में दो बार खाने को मांस मिल जाता था, पब कि हमारी वर्तमान शताब्दी में ऐसे इलाके भी है, जहां बेत-मजदूरों को वर्ष में केवल तीन बार ही मांस मिलता है। इसके अलावा, युद्ध के बाद मजदूरी भी queft aarrett i garantit siit " (G. Freytag, "Neue Bilder aus dem Leben des deutschen Volkes", Leipzig, 1862, 7• , 741)
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