८२६ पूंजीवादी उत्पादन . इस बात का अधिकार दे दिया गया था कि वे ऐसे लोगों को सार्वजनिकम से कोड़े लगवायें और पहले अपराध के वास्ते छ: महीने और दूसरे अपराध के वास्ते २ पर्व तक बेल में बन्द कर दें। स्थानीय मजिस्ट्रेट उनको खेल के अन्दर जब चाहें, तब, और जितने चाहें, उतने कोड़े लगवा सकते थे जो बदमाश ज्यादा खतरनाक समझे जाते थे और जिनके सुधार की कोई माशा नहीं की जाती थी, उनके बायें कंधे पर बदमाशी का "R" चिन्ह वायकर उनको सन्त काम में जोत दिया जाता था, और यदि वे इसके बाद भी मील मांगते हुए पकड़े जाते थे, तो उनको निर्ममता के साथ फांसी दे दी जाती थी। ये कानून १८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लागू रहे और केवल उस समय रह हुए, जब रानी ऐन के राज्य-काल का १२ वो कानून (२३ वा अध्याय) बनाया गया। फ्रांस में भी इसी तरह के कानून बनाये गये थे। वहाँ १७ वी शताब्दी के मध्य में पेरिस में "पावारा लोगों का राज्य" ("royaume des truands") कायम किया गया पा। लुई सोलहवें का राज्यकाल प्रारम्भ होने के समय भी (१३ पुलाई १७७७ को) यह कानून बना दिया गया कि १६ से ६० वर्ष तक की मायु का प्रत्येक ऐसा पुरुष, जिसके पास बीवन-निर्वाह का कोई साधन नहीं है और वो कोई बंधा नहीं करता, पुट के बड़े में काम करने के लिये भेज दिया जायेगा। नेदरलगस के लिये चार्ल्स पांचवें ने इसी तरह का एक कानून (अक्तूबर १५३७ में) बनाया था, और हालेज के राज्यों तथा नगरों के (१० मार्च १६१४ के) पहले पावेश में और संयुक्त प्रान्तों के (२६ जून १६४६ के) प्साकाट में भी इसी प्रकार का नियम बनाया गया था, इत्यादि इत्यादि। इस प्रकार, खेती करने वाले लोगों की सबसे पहले जबर्दस्ती बमीने छीनी गयीं, फिर उनको उनके घरों से खदेड़ा गया, पावारा बनाया गया और उसके बाद उनको निर्मम और भयानक कानूनों का उपयोग करके कोड़े लगाये गये, बहकते लोहे से दागा गया, तरह-तरह की यातनाएं दी गयी और इस प्रकार उनको मजबूरी की प्रणाली के लिये प्रावश्यक अनुशासन सिखाया गया। केवल इतना ही काफी नहीं है कि समाज के एक छोर पर मम के लिये प्रावश्यक तमाम ची पूंची की शकल में केनित हो जाती है और दूसरे छोर पर मनुष्यों की पह विशाल संख्या एकत्रित हो जाती है, जिसके पास अपनी बम-शक्ति के सिवा और कुछ बेचने को नहीं होता । न ही यह काफी है कि वे अपनी मम-शक्ति को स्वेच्छा से बेचने के लिये मजबूर होते हैं। पूंजीवादी उत्पादन की प्रगति एक ऐसे मजदूर-वर्ग का विकास करती है, जो अपनी शिक्षा, परम्परा और प्रयास के कारण उत्पादन की इस प्रणाली की पावश्यकतामों को प्रकृति के स्वत:स्पष्ट नियमों के समान समझने लगता है। पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया का संगठन एक बार पूर्णतया विकसित हो पाता है, तो फिर बह सारे प्रतिरोध को खतम कर देता है। सापेक्ष अतिरिक्त बन-संस्था का निरन्तर उत्पादन मम की पूर्ति और मांग के नियम को और इसलिये मजदूरी को एक ऐसी लोक में साये रखता है, वो पूंजी की पावश्यक्तामों के अनुरूप होती है। पार्षिक सम्बयों का भाँडा बवाय मजदूर को पूरी तप पूंजीपति के अपीन बना देता है। पार्षिक परिस्थितियों के अलावा कुछ प्रत्यक बल-प्रयोग अब भी किया पाता है, लेकिन केवल अपवार केस में। साधारणतया मयूर को "उत्पावन के प्राइतिक नियमों के भरोसे मेटा ना सकता है, पति उसको पूंजी पर निर्भरता के भरोसे मेलामा सकता है, जो निर्माता स्वर्व उत्पादन की परिस्थितियों से उत्पन्न होती है और दोन . . .
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