जिन लोगों की सम्पत्ति छीन ली गयी, उनके खिलाफ खूनी कानूनों का बनाया जाना ८२५ बेम्स प्रथम के राज्य-काल में यह विधान पा कि यदि कोई पावनी भावारागर्दी करते हए और भीख मांगते हुए पाया जाता था, तो उसे बदमाश और मावारा घोषित कर दिया जाता था। स्थानीय मजिस्ट्रेटों (Justices of the peace in petty sessions) को . . . . एकड़ जमीन को एक बाड़े के भीतर घेर लेता है, वहां रहने वाले काश्तकारों को उनकी जमीनों से निकाल देता है और या तो धोखे और फ़रेब से, या जबर्दस्त अत्याचार के द्वारा उनको वहां से खदेड़ देता है, और या उनको इतना तंग करता है और इतने दुःख देता है कि वे थककर अपना सब कुछ बेच देने को तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार किसी न किसी तरकीब से, किसी न किसी हेराफेरी से, इन गरीब, जाहिल , प्रभागे मनुष्यों को इसके लिये मजबूर कर ही दिया जाता है कि तमाम स्त्री-पुरुष, पति-पत्नियां, अनाथ बच्चे , विधवायें और गोद में बालक उठाये हुए दुखियारी माताएं और उनका सारा परिवार,-जिसकी हैसियत बहुत छोटी और संख्या बहुत बड़ी होती है, क्योंकि काश्तकारी में बहुत काम करने वालों की जरूरत पड़ती है,-ये सारे लोग अपना घर-बार छोड़कर निकल जायें। मैं कहता हूं कि ये लोग बेचारे एक बार अपना परम्परागत घर छोड़ने के बाद सदा इधर-उधर भटकते ही रहते हैं और उन्हें अपना सिर छिपाने के लिए भी कोई जगह नहीं मिलती। उनके घर के सारे सामान का मूल्य बहुत कम होता है , हालांकि फिर भी वह पच्छे दामों में बिक सकता था; मगर यकायक उठाकर घर के बाहर फेंक दिये जाने पर उनको मजबूर होकर उसे मिट्टी के मोल बेच देना पड़ता है। और इस तरह उन्हें जो चन्द पैसे मिलते हैं, जब वे पैसे इधर-उधर भटकते-भटकते सब खर्च हो जाते हैं, तो फिर वे इसके सिवा और क्या कर सकते हैं कि चोरी करें और सर्वथा न्यायोचित ढंग से फांसी पर लटक जायें और या भीख मांगते हुए घूमें? और उस हालत में भी उनको प्रावारा करार देकर जेल में डाला जा सकता है, क्योंकि वे इधर-उधर घूमते हैं और काम नहीं करते, हालांकि सचाई यह है कि वे काम पाने के लिये चाहे जितना गिड़गिड़ायें, उनको कोई प्रादमी काम नहीं देता।" इन खदेड़े जाने वाले गरीबों में से, जिनको, टोमस मोर के कथनानुसार, मजबूर होकर चोरी करनी पड़ती थी, हेनरी पाठवें के राज्य-काल में "७२,००० छोटे-बड़े चोर जान से मार मले गये थे"। (Holinshed, “Description of England" [होलिनशेड, 'इंगलैण्ड का वर्णन'], खण्ड १, पृ. १८६।) एलिजाबेय के काल में "बदमाशों को बड़ी मुस्तैदी के साथ फांसी पर लटकाया जाता था, मोर माम तौर पर कोई साल ऐसा नहीं बीतता था, जब तीन या चार सौ भादमी फांसी की भेंट न चढ़ जाते ETI" (Strype, “Annals of the Reformation and Establishment of Religion, and other Various Occurrences in the Church of England during Queen Elizabeth's Happy Reign" [स्ट्राइप, 'चर्च-सुधार और धर्म-स्थापना का तथा रानी एलिजावेष के परम सुखदायी राज्य-काल में इंगलैण्ड के चर्च से सम्बंधित अन्य विभिन्न घटनामों का इतिहास'], दूसरा संस्करण, १७२५, २।) इसी लेखक-स्ट्राइप-के कथनानुसार, सोमरसेटशायर में एक साल में ४० व्यक्तियों को फांसी दी गयी, ३५ गकुमों का हाथ जला दिया गया, ३७ को कोड़े लगाये गये और १८३ को "पक्के भावारा' देकर छोड़ दिया गया। फिर भी इस लेखक की राय है कि कैदियों की यह बड़ी संख्या वास्तविक अपराधियों की संख्या का पांचवां हिस्सा भी नहीं थी, क्योंकि मजिस्ट्रट इस मामले में बड़ी नापरवाही दिवाते थे और लोग-बाग अपनी मूबंता के कारण इन बदमाशों पर तरस बाते थे; पौर इंगलैण्ड की अन्य काउण्टियों की हालत इस मामले में सोमरसेटशायर से बेहतर नहीं पी, बल्कि कुछ की हालत तो और भी बराब थी। . . 11
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