७९६ पूंजीवादी उत्पादन से एक बाई को फिर कान मिल जायेगा, तो भी ६.२१,१७४ व्यक्ति बच जाते हैं, जिनको 'देश मेड़कर चले जाना पड़ेगा। जैसा कि इंगलेज में बहुत दिनों से लोग जानते हैं, १५ एकर से ऊपर, पर १०० एकड़ तक की चौथी, पांचवीं प्रौरी कोटियां मनाव की पूंजीवादी खेती के लिये बहुत छोटी है और उनपर भेड़ पालना भी अब लगभग बन्द होता जा रहा है। इसलिये, पूर्वोक्त मान्यता के आधार पर ७८८,७६१ व्यक्तियों को और पापरलेज छोड़कर चले जाना पड़ेगा। इस तरह कुल १७,०६,५३२ व्यक्तियों को देश से निकालना पड़ेगा। और चूंकि 'appétit vient en mangeant (साने के साथ-साथ भूत बढ़ती जाती है), इसलिये मायरलेस की भावारी के ३५ लाल हो जाने पर भी भूस्वामियों को अयाल पायेगा कि यह बेश प्रमी. तक दुती रहता है, और यह इसीलिये कि उसकी पावावी बहरत से ज्यादा है। और इसलिये वे कहेंगे कि प्रायरलज की पावाची को कम करने का काम जारी रहना चाहिये। ताकि यह देश अपनी सच्ची भूमिका अदा कर सके और इंगलैड के लिये भेड़ों और पशुओं की परागाह का काम कर सके। . . इस ग्रंथ के तीसरे खण्ड के भू-सम्पत्ति वाले प्रमुभाग में मैं अधिक विस्तार के साथ यह बताऊंगा कि अलग-अलग जमींदारों और इंगलैण्ड की संसद, दोनों ने खेती की क्रान्ति को जबर्दस्ती पूरा करने के लिये तथा आयरलैण्ड की पाबादी को घटाकर जमींदारों के मन-पसन्द स्तर पर ले पाने के लिये किस तरह खूब समझ-बूझकर अकाल तथा उसके परिणामों से अधिक से अधिक लाभ उठाया था। वहां मैं छोटे काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों की हालत की भी एक बार फिर चर्चा करूंगा। इस समय केवल एक उद्धरण और देना काफ़ी होगा। नस्साउ डब्लयू० Pilferez a gyalt foranlar 1941 "Journals, Conversations and Essays relating to Ireland" ['पायरलण्ड से सम्बंधित डायरी, वार्तालाप और निबंध'] (२ खण्ड , London, 1868, खण्ड दूसरा, पृ० २८२) में अन्य बातों के अलावा यह भी लिखा है : “'हां,-डाक्टर जी० ने कहा,-'हमारे यहां गरीबों का कानून भी है, जिससे जमींदारों को बड़ी भारी मदद मिलती है। उनकी सहायता के लिये एक पौर भी शक्तिशाली साधन परावास है ... मायरलैण्ड का हितैषी कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहेगा कि (जमींदारों और छोटे केल्टिक काश्तकारों के बीच) यह युट लम्बा खिंच जाये,-और यह तो कोई और भी कम चाहेगा कि इस युद्ध में काश्तकारों की जीत हो...जितनी जल्दी यह युद्ध समाप्त हो जायेगा-जितनी जल्दी पायरलैण्ड चरागाहों का देश (grazing country) बन जायेगा और जितनी जल्दी उसकी मावादी सिर्फ इतनी रह जायेगी, जितनी चरागाहों एक देश की होनी चाहिये, - उतना ही सब वर्गों का भला होगा। १८१५ में इंगलैण्ड में जो अनाज सम्बंधी कानून बनाये गये थे, उनसे मायरलैण्ड को ब्रिटेन को स्वतंत्रतापूर्वक अनाज निर्यात करने का एकाधिकार मिल गया था। इसलिये, इन कानूनों से अनाज की खेती को बनावटी ढंग का बढ़ावा मिला था। १५४६ में अनाज सम्बंधी कानूनों को. रद्द करके अकस्मात इस एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। अन्य तमाम कारणों के अलावा अकेली. यह घटना ही भायरलैण्ड की खेती योग्य जमीन को परागाहों में बदलने की क्रिया को, फ्रामों के संकेंद्रण. की क्रिया को और छोटे कृषकों की वेदवलियों को जबर्दस्त बढ़ावा देने के लिये काफ़ी. पी।.१८१५ से १८४६ तक मायरलैण की भूमि की उर्वरता की प्रशसा करने और यह घोषित करने के बाद कि स्वयं प्रकृति ने इस भूमि को गेहूं की खेती करने के लिये बनाया है। इंगलैड के कृषि-वैज्ञानिकों, प्रशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों ने अकस्मात
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