पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७९५

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७६२ पूंजीवादी उत्पादन बसा दिया गया। पुरुषों को पास-पड़ोस के कामों पर काम तलाशना पड़ता है और उनको सिर्फ रोबनवारी पर रखा जाता है, जिससे हमेशा काम छूट जाने का खतरा बना रहता है। चुनांचे, 'इन लोगों को काम करने के लिये कभी-कभी बहुत दूर पैदल चलकर पाना और वहां से लौटना पड़ता है, वे अक्सर भीग जाते हैं, बहुत कष्ट उठाते हैं, और अन्त में बहुवा इसका यह परिणाम होता है कि वे बीमार पड़ जाते हैं और उनको रोग तथा प्रभाव मा घेरते हैं।" ."बेहात के अतिरिक्त मजदूर समझे जाने वाले लोग वर्ष प्रति वर्ष पाकर कस्बों में भर जाते हैं। मगर फिर भी लोगों को यह देखकर पाश्चर्य होता है. कि “कस्बों और गांवों में अब भी मखदूरों का प्रतिरेक है, पर देहाती इलाकों में या तो मजदूरों की कमी है, या. कमी होने की पाशंका है। सच तो यह है कि यह कमी केवल "फसल की कटाई के दिनों में, या वसन्त में, या ऐसे समय" विखाई देती है, "जब खेती की क्रियायों में तेली मा जाती है। वर्ष के बाकी भागों में बहुत से मजदूर बेकार रहते हैं" सचाई यह है कि "अक्तूबर के महीने से, जब कि मालमों की मुख्य फसल खोदकर निकाली जाती है, मंगले बसन्त के शुरू होने तक... इन लोगों के लिये कोई काम नहीं रहता। पौर जब खेती के कामों में तेतीपाती है, तब भी उनको "सण्डित दिन की प्रणाली के अनुसार काम करना पड़ता है और तरह-तरह के कारणों से उनका श्रम बीच में रुक-रुक जाता है।" खेती की क्रान्ति के ये परिणाम-अर्थात् खेती योग्य उमीन का चरागाहों में बदल दिया जाना, मशीनों का प्रयोग करना, श्रम के उपयोग में हद से ज्यादा मितव्ययिता बरतना, इत्यादि- उन प्रादर्श समीदारों के कारण और भी उग्र रूप धारण कर लेते हैं, जो लगान की अपनी प्राय को दूसरे देशों में खर्च करने के बजाय प्रापरलड में अपनी जमींदारियों पर ही रहने की कृपा करते हैं। इस दृष्टि से कि कहीं पूर्ति और मांग का नियम भंग न हो जाये, महानुभाव अपनी "श्रम-पूर्ति... मुख्यतया अपने छोटे किसानों में से करते हैं, जिनको बहुवा मजबूरी की ऐसी दरों पर खमीदार के लिये काम करने के वास्ते हाजिर हो जाना पड़ता है, जो अक्सर साधारण मजदूरों की मजदूरी की दरों से काफी कम होती है, और जिनके बारे में इसका भी कोई खयाल नहीं रखा जाता कि बुवाई या कटाई के नाजुक दिनों में खुद अपना काम न कर पाने के कारण उनको क्या प्रसुविधा या हानि होगी। रोजगार पाने की अनिश्चितता और अनियमितता, बार-बार भम की मंग में मजदूरों का प्राषिश्य हो जाना और इस स्थिति का बहुत देर तक बने रहना-प्रतिरिक्त जन-संस्था के में सारे लक्षण मायरलेस के खेतिहर सर्वहारा की कठिनाइयों के रूप में गरीबों के कानून के इंस्पेक्टरों की रिपोर्टों में हमारे सामने पाते हैं। पाठकों को याद होगा कि इंगलैण्ड के खेतिहर सर्वहारा के सम्बन्ध में भी हमने इसी प्रकार का एक दृश्य देता था। परन्तु दोनों में अन्तर यह . उप. 1 4 1 उप० पु०, पृ० २५। पु०, पृ २७॥ उप. पृ. २५॥ 'उप. पु., पृ.१। उप. पु., पृ. ३१, ३२ । पु०, पृ०२५। 'उप० पु., पृ० ३०।