७८० पूंजीवादी उत्पादन प्रापरलंड . इस अनुभाग को समाप्त करने के पहले मायरलेस पर एक नबर गलना बरी है। पहले मैं वहां से सम्बंधित मुल्य तय मापके सामने रखता हूं। १६४१ में मायरलेस की जन-संख्या २२, २२,६६४ पर पहुंच गयी पी; १८५१ तक वह घटकर केवल ६६, २३, ९८५ रह गयी ; १८६१ में बह ५८,५०,३०६ हो गयी और १८६६ में तो केवल ५५ लाखही रह गयी, यानी बह लगभग १८०१ के स्तर पर पहुंच गयी। यह कमी भारम्भ हुई थी १८४६ में, जब कि अकाल पड़ा था, और इस तरह बीस साल से कम समय में . घृणा करते . को ऊपर उठाने के लिये" एकदम दूसरे ध्रुव के प्रदेश में अपने मिशनरी भेजा करते हैं,- यह कैसे सम्भव हुआ कि ये तमाम लोग देखते रहे और इनकी मांखों के सामने , उनकी जमींदारियों पर ऐसी भयानक व्यवस्था कायम हो गयी; अधिक सुसंस्कृत पत्रों ने केवल इस बात पर दुःख प्रकट करने तक ही अपने को सीमित रखा कि बेतिहर प्राबादी का इतना घोर पतन हो गया है कि लोग अपने बच्चों को चन्द पैसों के बदले में ऐसी भयानक गुलामी में बेच देते हैं। सचाई यह है कि इन " नाजुक मिजाज" लोगों ने खेतिहर मजदूरों को जिस नरक में रख छोड़ा है, उसमें यदि वे अपने बच्चों को खा भी जायें, तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं होगी। आश्चर्य की बात तो असल में यह है कि ऐसी हालत में रहते हुए भी उनका चरित्न-बल अधिकांश रूप में इतना कम क्षीण हुआ है। सरकारी रिपोर्टों से प्रमाणित हो जाता है कि जिन इलाकों में टोलियों की प्रणाली पायी जाती है, उनमें भी मां-बाप इस प्रणाली को हृदय हैं। “गवाहों के बयानों में इस तरह की काफ़ी सामग्री मौजूद है, जिससे पता चलता है कि बहुत से बच्चों के मां-बापों को खुशी होगी, यदि कोई कानून बनाकर उनपर कोई ऐसी जिम्मेदारी डाल दी जाये, जिससे उनको उस दबाव और लालच का मुकाबला करने में मदद मिले, जिसका उनको बराबर सामना करना पड़ता है। उनपर कभी-कभी गांव के अफ़सर और कभी-कभी मालिक इसके लिये दवाव डालते हैं कि उनको अपने बच्चों को ऐसी आयु में ही काम करने के वास्ते भेज देना चाहिये , जब कि स्कूल की हाजिरी देने में ... स्पष्ट ही उनका अधिक लाभ होगा, और मालिक तो यह धमकी भी देते हैं कि अगर वे नहीं मानेंगे, तो खुद उनको भी बर्खास्त कर दिया जायेगा ... मजदूरों का इस तरह जो समय और शक्ति बाया होते हैं, खुद उनको और उनके बच्चों को प्रत्यधिक और प्रलाभप्रद परिश्रम करने से जो कष्ट होता है, ऐसा प्रत्येक उदाहरण, जब कि मां-बाप इस नतीजे पर पहुंचे होंगे कि उनके बच्चे का नैतिक पतन घरों की भीड़ के घातक प्रभाव अथवा सार्वजनिक टोली के जहरीले प्रसर के कारण हुआ है,-ये सारी बातें ऐसी है, जिन्होंने श्रम करनेवाले गरीबों के मन में ऐसी भावनाएं पैदा कर.दी होंगी, जिनको प्रासानी से समझा जा सकता है और जिनको यहां गिनाना अनावश्यक है। उनके मन में जरूर यह विचार पाता होगा कि उनको इतना अधिक शारीरिक एवं मानसिक कष्ट ऐसे कारणों से उठाना पड़ा है, जिनकी जिम्मेवारी उनपर कतई नहीं है और जिनको यदि उनकं बस में होता, तो वे हरगिज बर्दाश्त न करते, पौर जिनके खिलाफ संघर्ष करना उनकी शक्ति के बाहर है।" (उप. पु., पृ. xx [पीस], अंक. २२, और पृ. XXIII [तेईस), अंक १६.] :: .
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