पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७३७

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७३४ पूंजीवादी उत्पादन . क्योंकि उसे काम करना है।" जिन शहरी मजदूरों की जांच की गयी, उनकी हालत और भी खराब निकली। "इन लोगों को इतना पुरा भोजन मिलता है कि उनमें घोर प्रभाव के मारे हुए लोगों की संख्या निश्चय ही बहुत बड़ी होगी।"1 (यह सब पूंजीपति के "प्रभावों" का ही सूचक है। अर्थात् उसके मजदूरों के केवल बिन्दा रहने के लिये जीवन-निर्वाह के जितने साधन नितान्त पावश्यक है, पूंजीपति उनको भी खरीदने के लिये अपने मजदूरों को काफी मजदूरी नहीं देता और "इस सुख से वंचित रहता है"।) ग. स्मिथ द्वारा निर्धारित अल्पतम मानदण की तुलना में और सूती मिलों के मजदूरों को सबसे ज्यादा मुसीबत के जमाने में जितना भोजन मिलता था, उसके मुकाबले में विशुद्ध रूप से शहरों में रहने वाले मजदूरों की ऊपर गिनायी गयी कोटियों को कितना पोषण मिलता पा, यह नीचे दी गयी तालिका से स्पष्ट हो जाता है: प्रति सप्ताह प्रति सप्ताह स्त्री और पुरुष दोनों मौसतन कितना प्रोसतन कितना कार्बन मिलता नाइट्रोजन मिलता था उन पांच पंषों के मजदूरों को, जो मकानों के अन्दर बैठकर किये जाते थे, कितना पोषण मिलता था लंकाशायर के बेकार कारीगरों को कितना पोषण मिलता २८,८७६ प्रेन | १,१९२ प्रेन 91 " २८,२११ १,२९५ ग. स्मिथ के मतानुसार लंकाशायर के कारीगरों को पोषण की कम से कम कितनी मात्रा मिलनी चाहिये पी (यह हिसाब पुरुषों और स्त्रियों की संख्या को बराबर मानकर लगाया गया था) २८,६०० १,३३० . या जितने प्रकार के प्रौद्योगिक मजदूरों की हालत की जांच की गयी, उनमें से पापों को, को, वियर की एक बूंद भी नहीं मिलती थी, २८ प्रतिशत को दूध नहीं मिलता १२५ था। मखदूर-परिवारों को प्रति सप्ताह मौसतन जितना द्रव पोषण मिलता था, उसकी मात्रा सबसे कम सोने-पिरोने का काम करने वाली औरतों में बी, जिनको सात प्राँस व पोषण मिलता था, और सबसे ज्यादा मोजे बनाने वालों में पी, जिनको २२ मांस अब पोषण मिलता था। जिन्हें दूध नहीं मिलता था, उनका प्रषिकतर भाग लन्दन की सीने-पिरोने का काम करने वाली औरतों का था। प्रति सप्ताह सब से कम रोटी का उपभोग सीने-पिरोने का काम करने वाली औरतें करती थी, नो प्रोसतन केवल पोल रोटी इस्तेमाल करती थी, . 1 उप० पु., पृ० १३ । उप० पु०, परिशिष्ट, पृ. २३२ । .