पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७२८

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पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७२५ बना दिया है, उसी में ईसाइयों की वानवृत्ति, ब्रह्मचर्य, मगे और पवित्र स्थानों के अस्तित्व का ralson detre (मौचित्य) निहित है, तो यह धर्म-याणक प्रोटेस्टेंट पावरी यह समझता है कि नियति के इस विधान के कारण उन तमाम कानूनों को अनुचित घोषित कर देना चाहिये, जिनके मातहत गरीबों को पोड़ी सी सार्वजनिक सहायता पाने का अधिकार मिल . जाता था। स्तो ने लिखा है: "सामाणिक धन बढ़ता है, तो उससे समाज का यह उपयोगी वर्ग उत्पन्न हो जाता है... वह सब से स्थाना पका देने वाले, सबसे गंदे और सबसे अधिक घृणित काम करता है,-पौर संक्षेप में कहा जाये, तो जीवन में जो कुछ भी प्राधिकर और बासोषित है, उसे वह अपने कंधों पर संभाल लेता है और इस प्रकार अन्य वर्गों के लिये अवकाश, चित्त की प्रसन्नता और चरित्र की मगित (c'est bonl) [खूब!] गरिमा को सम्भव बनाता है।"1 उसके बाद स्तोत्र अपने से प्रश्न करते हैं कि जब इस पूंजीवादी सम्यता के साप-साथ इतनी गरीबी फैलती है और माम जनता का ऐसा पतन होता है, तब बर्बरता की तुलना में उसे प्रगति का सूचक क्यों समझा जाता है? इस प्रश्न का स्तोत्र के पास केवल एक ही जवाब है। वह यह कि पूंजीवाद में मनुष्यों को सुरक्षा प्राप्त होती है। सिस्मोदी ने लिखा है : "उद्योग तथा विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप हरेक मजदूर उसके उपभोग के लिये जितना पावश्यक होता है, वह रोजाना उससे कहीं ज्यादा पैदा कर सकता है। लेकिन इसके साथ ही साथ यह भी है कि उसका श्रम वैसे तो धन पैदा करता है, परन्तु इस धन का यदि वह पुर उपभोग करने लगे, तो वह उसकी भन करने की योग्यता को पहले से कम कर देगा।" सिस्मोदी के विचार से, "लोग" (अर्थात् काम न करने वाले) “सम्भवतः कला के समस्त विकास और कारखानों की बनी तमाम चीजों के प्रानन्द से वंचित रहना ही स्थावा पसन्द करेंगे, यदि इन चीजों के एवज में उन्हें मजदूरों की तरह लगातार मेहनत करनी पड़े... पानकल मेहनत और उसके मुमाव के बीच में एक दीवार खड़ी हो गयी है। जो भावमी काम करता है, बाद को फिर वही पादमी पाराम नहीं करता, बल्कि एक क्योंकि काम करता है, इसलिये दूसरा पाराम करता है... प्रतएव श्रम की उत्पादक शक्तियों के लगातार बढ़ते जाने का केवल यही परिणाम हो सकता है कि जो काम नहीं करते, उन पनियों के विलास और भोग में वृद्धि होती जाये।" अन्त में, उस हव्यहीन पूंजीवादी मतवावी, बेस्तूत रेती को सुनिये, जिसने साफ-साफ पौर दो-टूक कह दिया है कि "परीव राष्ट्रों में बनता सुख से रहती है। पनी राष्ट्रों में यह पाम तौर पर गरीबी का जीवन बिताती है।" . . . . . . 1Storch, उप० पु०, ग्रंथ ३, पृ २२३ । 'Sismondi, उप० पु०, पृ. ७६, ८०, ६५। 'Destutt de Tracy, उप. पु०, पृ० २३१ : "Les nations pauvres, cest la où le peuple est à son aise; et les nations riches, c'est là où il est ordinairement pauvre.".