पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७१७ और इसलिये कुछ हद तक बम की पूर्ति को मजदूरों की पूर्ति से स्वतंत्र कर देता है। इस माधार पर भम की पूर्ति पौर मांग का नियम जिस तरह कार्य करता है, उससे पूंजी की निरंकुशता सम्पूर्ण हो जाती है। प्रतः जैसे ही मजदूरों को इस रहस्य का पता चलता है कि में जितना अधिक काम करते हैं, दूसरों के लिये जितनी अधिक बोलत पैदा करते हैं और उनके भम की उत्पादकता जितनी अधिक बढ़ती जाती है, पूंजी के पात्म-विस्तार के एक साधन के रूप में उनका कार्य किस तरह खुद उनके लिये ही उतना ज्यादा खतरनाक बनता जाता है। जैसे ही मजदूरों को यह मालूम होता है खुब उनके बीच जो प्रतियोगिता चलती रहती है, उसकी तीव्रता की मात्रा पूरी तरह इस बात पर निर्भर करती है कि उनपर सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या का कितना बवाव पड़ रहा है और इसलिये जैसे ही वे अपने वर्ग को पूंजीवादी उत्पादन के इस स्वाभाविक नियम के सत्यानाशी प्रभाव से मुक्त करने या उसके प्रभाव को कमजोर करने के लिये देग्-यूनियनों मादि के चरिये, काम से लगे मजदूरों और बेकार मजदूरों के बीच नियमित सहकारिता का संगठन करने का प्रयत्न करते हैं, वैसे ही पूंजी और उसका चाटुकार-अर्थशास्त्र- यह चिल्लाने लगते हैं कि पूर्ति और मांग के शाश्वत" और मानों 'पावन" नियम का उल्लंघन किया जा रहा है। काम से लगे हुए मजदूरों और बेकार मजदूरों का प्रत्येक सहयोग इस नियम के "निर्विघ्न रूप से" कार्य करने में बाषा गलता है। मगर, दूसरी मोर, प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण (मिसाल के लिये, उपनिवेशों में) प्रौद्योगिक रिजर्व सेना के निर्माण में बाधा पड़ती है और इसलिये मजबूर-वर्ग पूरी तरह पूंजीपति-वर्ग के अधीन नहीं बनता, वैसे ही पूंजी, मय अपने मुसाहब अर्थशास्त्र के, पूर्ति और मांग के इस पावन" नियम के विल्ड विद्रोह कर उठती है और चोर-चबर्दस्ती तथा राज्य के हस्तक्षेप के द्वारा उसको अमल में पाने से रोकने की कोशिश करने लगती है। « &6 . अनुभाग ४- सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या के विभिन्न रूप। पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम सापेक अतिरिक्त बन-संख्या हर सम्भव रूप में मिलती है। हर मजदूर, जिस समय वह केवल मांशिक रूप से रोजगार से लगा होता है या पूरी तरह बेकार होता है, इसी श्रेणी में गिना जाता है। प्रौद्योगिक चक्र की बदलती हुई अवस्थाएं सापेन अतिरिक्त जन-संस्था पर अपनी छाप गलती हैं। कभी संकट का काल पाता है, तो वह बहुत उग्र रूप धारण कर लेती है। फिर मंदी का माना पाता है, तो वह वीर्ष स्थायी बन जाती है। पर यदि हम बारबार सामने पाने वाले इन व्यापक एवं नियतकालिक म्पों की ओर ध्यान न दे, तो सापेक्ष अतिरिक्त धन-संख्या हमेशा तीन मों में बिताई देती है: बहते हुए, अव्यक्त और निष्प्रवाह माधुनिक उद्योग के केन्द्रों में-पिटरियों, कारखानों, लोहे के कारखानों, मानों प्रावि में-कनी मजदूरों को काम से जवाब मिल जाता है, कभी पहले से बड़ी संख्या में फिर रस लिया जाता है, और इस तरह काम से लगे हुए मजदूरों की संख्या कुल मिलाकर बढ़ती चाती है, हालांकि उत्पादन के पैमाने के अनुपात में वह बराबर कम होती जाती है। यह अतिरिक्त जन-संख्या का बहता हुमा म होता है।
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