माल का मूल्य पहले से भाषा रह गया है, और या यह कि कोट का मूल्य पहले से दुगना हो गया है। ३) मान लीजिये कि कपड़े तथा कोट के उत्पादन के लिये पावश्यक भम-काल की क्रमशः मात्रायें एक ही दिशा और एक से अनुपात में बदलती हैं। इस सूरत में, कपड़े के तथा कोट के मूल्य चाहे जितने बदल जायें, पर २० गव कपड़ा १ कोट के ही बराबर रहता है। पर जैसे ही उनका किसी ऐसे तीसरे माल से मुकाबला किया जाता है, जिसका मूल्य स्थिर रहा है, वैसे हो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका मूल्य बदल गया है। यदि तमाम मालों के मूल्य एक साथ और एक ही अनुपात में घट जायें या बढ़ जायें, तो उनके सापेक्ष मूल्यों में कोई परिवर्तन म होगा। उनके मूल्य में होने वाला वास्तविक परिवर्तन इस बात से जाहिर होगा कि एक निश्चित समय में अब पहले से कितने कम या ज्यादा परिमाण में माल तैयार होते हैं। ४) सम्भव है कि कपड़े के तवा कोट के उत्पादन के लिये क्रमशः प्रावश्यक प्रम-काल और उसके फलस्वरूप इन मामलों का मूल्य एक साथ और एक ही दिशा में बदलें, लेकिन दोनों के बदलने की गति समान न हो, या सम्भव है कि दोनों उल्टी दिशाओं में बदलें या किसी मोर ढंग से बदलें। इस तरह जितनी अलग-अलग सूरतें मुमकिन हैं, उनका किसी माल के सापेक्ष मूल्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह १,२ और ३ के परिणामों से निगमन करके जाना जा सकता है। प्रतएव, मूल्य के परिमाण में होने वाले वास्तविक परिवर्तन अपनी सापेक अभिव्यंजना में-अर्थात् सापेक्ष मूल्य का परिमाण व्यक्त करने वाले समीकरण में-न तो प्रसंदिग्ध रूप में प्रतिविम्बित होते हैं और न ही संपूर्ण रूप में। किसी माल का मूल्य स्थिर रहते हुए भी उसका सापेक मूल्य बदल सकता है। यह भी सम्भव है कि उसका मूल्य बदलते रहने पर भी उसका सापेक्ष मूल्य स्थिर रहे। और प्राखिरी बात यह है कि मूल्य के परिमाण में तथा उसकी सापेक्ष अभिव्यंजना में एक साथ होने वाले परिवर्तनों के लिये मात्रा की दृष्टि से एक जैसा होना कतई सरूरी नहीं है।' . 'मूल्य के परिमाण तथा उसकी सापेक्ष अभिव्यंजना के बीच पायी जाने वाली इस प्रसंगति से घटिया किस्म के अर्थशास्त्रियों ने अपनी परम्परागत चालाकी से फायदा उठाया है। उदाहरण के लिये : “एक बार यह मान लीजिये कि 'क' का मूल्य इसलिये गिर जाता है कि 'ख' का, जिसके साथ कि उसका विनिमय होता है, चढ़ जाता है, हालांकि इस बीच 'क' में पहले से कम श्रम खर्च नहीं हुमा है; और यह मानते ही पापका मूल्य का सामान्य सिद्धान्त भरराकर गिर पड़ता है... जब उसने (रिकार्डो ने) यह मान लिया कि 'ब' की अपेक्षा 'क' का मूल्य चढ़ जाने पर 'क' की अपेक्षा 'ख' का मूल्य गिर जाता है, तब उसने वह नींव ही काट दी, जिसपर उसकी यह शानदार स्थापना टिकी थी कि किसी भी माल का मूल्य सदा उसमें निहित श्रम द्वारा निर्धारित होता है। क्योंकि यदि 'क' की लागत में होने वाला परिवर्तन न केवल 'ब' की अपेक्षा, जिसके साथ कि उसका विनिमय होता है, स्वयं उसके मूल्य, को बदल देता है, बल्कि 'क' की अपेक्षा 'ख' के मूल्य को भी बदल देता है, हालांकि 'व' को पैदा करने के लिये मावश्यक श्रम-मात्रा में कोई तबदीली नहीं हुई है, तो न सिर्फ वह सिद्धान्त भरराकर गिर पड़ता है, जिसका दावा है कि किसी वस्तु में जितना श्रम लगाया गाता है, वह उसके मूल्य का नियमन करता है, बल्कि वह सिद्धान्त भी झूठा हो जाता है, . . . .
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