७१६ पूंजीवादी उत्पादन 2 . . है, जिसके सहारे मन की मांग पर पूर्ति का नियम काम करता है। वह इस नियम के कार्य- क्षेत्र को शोषण की क्रिया और पूंजी के प्रभुत्व के लिये सर्वथा सुविधाजनक सीमानों तक सीमित कर देती है। इस स्थान पर हमें फिर वर्तमान व्यवस्था की वकालत करने वाले प्रशास्त्रियों के एक बड़े शानदार कारनामे पर विचार करना होगा। पाठकों को याद होगा कि जब नयी मशीनों का इस्तेमाल शुरू करके या पुरानी मशीनों का विस्तार करके अस्थिर पूंजी के एक भाग. को स्थिर पूंजी में बदल दिया जाता है, तो वर्तमान व्यवस्था की वकालत करने वाला प्रशास्त्री इस क्रिया का, जो पूंजी को "मचल बना देती है" और साथ ही मजदूरों को रोजगार से मुक्त कर देती है, बिल्कुल उल्टा प्रर्ष लगाता है और कहता है कि यह किया तो मजदूरों के लिये पूंजी को मुक्त कर देती है। वर्तमान व्यवस्था के इन वकीलों की पृष्टता पूरी तरह केवल अब स्पष्ट होती है। जिनको मुक्ति मिल जाती है, उनमें सिर्फ वे ही मजदूर शामिल नहीं होते, जिनको मशीनें पाते ही काम से निकलवा देती है, बल्कि उनमें पाने वाली पीढ़ियों के वे लोग भी शामिल होते हैं, जो इन मजदूरों का भविष्य में स्थान लेंगे, और उनमें मजदूरों का वह नया गत्वा भी शामिल होता है, जिसको व्यवसाय का पुराने प्राधार पर सामान्य विस्तार होने पर नियमित रूप से काम मिलता जाता। अब इन तमाम लोगों को "मुक्ति मिल जाती है" और अपने लिये कार्य-क्षेत्र की तलाश करने वाला पूंजी का हर नया टुकड़ा उनका इच्छानुसार प्रयोग कर सकता है। वह पूंजी चाहे इन मजदूरों को अपनी ओर खींचे, चाहे किन्हीं और मजदूरों को, यदि वह परिमाण में केवल उन मजदूरों को ही मण्डी से निकाल ले जाने के लिये काकी है, जिनको मशीनों ने मण्डी में पटक दिया था, तो श्रम की सामान्य मांग पर उसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। यदि यह पूंजी इससे कम संख्या में मजदूरों को नौकर रखती है, तो फालतू मजदूरों की संख्या बढ़ जायेगी। यदि वह इससे अधिक संख्या में मजदूरों को नौकर रख लेती है, तो इन मजदूरों की संख्या "मुक्त कर दिये गये" मजदूरों की संख्या से जितनी ज्यादा होगी, श्रम की सामान्य मांग में केवल उतनी ही वृद्धि होगी। प्रतः अपने लिये कार्य-क्षेत्र तलाश करने वाली अतिरिक्त पूंजी से किसी और परिस्थिति में श्रम की सामान्य मांग को को बढ़ावा मिलता, उसका असर यहां पर हर हालत में उस हद तक खतम हो जायेगा, जिस हद तक कि मशीन मजदूरों को काम से जवाब दिलवा देती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पूंजीवादी उत्पादन का यन्त्र ऐसा प्रबंध करता है कि पूंजी की निरपेक्ष वृद्धि होने पर उसके साथ-साथ मम की सामान्य मांग में तदनुल्म वृद्धि नहीं होती। और वर्तमान व्यवस्था की वकालत करने वाला प्रशास्त्री कहता है कि इससे उन समस्त दुःखों, यातनाओं और सम्भावित मौतों की क्षति-पूर्ति हो जाती है, जिनका पहाड विस्थापित मजदूरों पर संक्रमण- काल में दूट पड़ता है, जब कि ये मजदूर उचोगों से निकाले जाकर प्रौद्योगिक रिसर्च सेना में भर्ती होने के लिये मजबूर कर दिये जाते हैं। मन की मांग और पूंजी की वृद्धि-ये दोनों एक चीन नहीं है, न ही मन की पूर्ति और मजदूरवर्ग की वृद्धि एक बीच है। यहां ऐसा नहीं है कि दो स्वतंत्र शक्तियां एक दूसरे पर प्रभाव गल रही हों। Les des dont pipes ( यहाँ तो पासा हमेशा एक केही पक्ष में पड़ता है) पूंची एक ही समय में दोनों तरफ अपने हाथ बिताती है। यदि, एक मोर, उसके संचय से भम की मांग बढ़ जाती है, तो, सरी मोर, बह मजदूरों को "मुक्त करके" उनकी पूर्ति को बढ़ा देती है, और साथ ही बेकार मजदूरों का वाव काम से लगे मजदूरों को पहले से अधिक बम करने के लिये मजबूर कर देता है
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