पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम की शक्ति भी बढ़ जाती है। वह केवल इसीलिये नहीं बढ़ती कि पहले से काम में लगी हुई पूंजी की प्रत्यास्थता में वृद्धि हो जाती है। वह केवल इसीलिये नहीं बढ़ती कि समाज का निरपेक्षा धन बढ़ जाता है, जिसका पूंजी केवल एक प्रत्यास्थतापूर्ण भाग होती है। वह केवल इसीलिये नहीं बढ़ती कि हर प्रकार की विशेष उत्तेजना के फलस्वरूम सास-प्रणाली इस धन के एक असाधारण अंश को फौरन अतिरिक्त पूंजी के रूप म उत्पादन को सौंप देती है। वह इसलिये भी बढ़ जाती है कि उत्पादन की क्रिया के लिये वो प्राविधिक परिस्थितियां प्रावश्यक होती है, -मशीनें, परिवहन के साधन इत्यादि,-बेजुब अब यह सम्भव बना देती हैं कि अतिरिक्त पैदावार को तीव्रतम गति से उत्पादन के अतिरिक्त साधनों में स्पान्तरित कर दिया जाये। संचय की प्रगति के साथ सामाजिक धन की बाढ़ सी मा जाती है, और उसे अतिरिक्त पूंजी में बदला जा सकता है। यह धन मानो पागल होकर या तो उत्पादन की पुरानी शालाओं में घुसने की कोशिश करता है, जिनकी मंग का यकायक विस्तार हो जाता है, और या वह उन नवनिर्मित शाखामों में; जैसे रेलों मावि में, प्रवेश कर जाता है, जिनकी पावश्यकता पुरानी शालानों के विकास के फलस्वरूप पैदा होती है। ऐसी तमाम सूरतों में इस बात की पावश्यकता होती है कि अन्य क्षेत्रों में उत्पादन के पैमाने को कोई हानि पहुंचाये बिना निर्णायक बिंदुओं पर बहुत बड़ी संस्थानों में मनुष्यों को मोका जा सके। ये मनुष्य जनाधिक्य से प्राप्त होते हैं। माधुनिक उद्योग जिस चरित्रगत कम में से गुजरता है, अर्थात् वह मौसत वर्ग की क्रियाशीलता, बहुत तेज उत्पादन, संकट और ठहराव के कालों के जिस दशवर्षीय चक (जिसके बीच-बीच में अपेक्षाकृत छोटे प्रबोलन माते रहते हैं) में से गुखरता है, वह इस बात पर निर्भर करता है कि अतिरिक्त जन- संख्या की पांचोगिक रिजर्व सेना का निर्माण, न्यूनाषिक अवशोषण और पुनर्निर्माण बराबर होता रहे। उपर प्रौद्योगिक चक्र की विभिन्न अवस्थाएं अतिरिक्त जन-संख्या में नयी भर्ती करती चलती है और उसके पुनरुत्पावन का एक प्रत्यन्त क्रियाशील अभिकर्ता बन जाती हैं। माधुनिक उद्योग का यह विचित्र कम मानव-इतिहास के किसी भी पुराने युग में नहीं देखा गया था, और पूंजीवादी उत्पादन के बाल्यकाल में भी उसका होना असम्भव था। उस काल में पूंजी की संरचना में बहुत ही धीरे-धीरे परिवर्तन होता था। इसलिये, जिस गति से पूंजी का संचय होता था, लगभग उसी गति से श्रम की मांग में भी तदनुरूप वृद्धि होती जाती थी। अपेक्षाकृत अधिक माधुनिक काल की तुलना में उन दिनों हालांकि संचय की प्रगति बहुत धीमी पी, फिर भी वह शोषण के योग्य प्रमजीवी जनसंख्या की प्राकृतिक सीमाओं से मागे नहीं बढ़ पाती पी, और इन सीमानों को केवल बबर्वस्ती ही तोड़ा जा सकता था, जिसका बिकहम मागे करेंगे। उत्पादन के पैमाने का एक कार को विस्तार होता है, वह उसके उतने ही प्राकस्मिक संकुचन की भूमिका होता है। और यह संकुचन फिर विस्तार के प्रेरक का काम करता है। परन्तु यदि कान में बोत देने के लिये मानव-सामग्री का प्रभाव हो, यदि जन-संख्या की निरपेक्ष वृद्धि से स्वतंत्र रूप से मजदूरों की संख्या में वृद्धि हो गयी हो, तो विस्तार करना असम्भव होता है। यह वृद्धि उस सरल क्रिया के द्वारा सम्पन्न होती है, जो मजदूरों के एक भाग को लगातार "मुक्त करती" जाती है। यह वृद्धि उन तरीकों के परिये होती है, जिनसे काम में लगे हुए मजदूरों की संख्या को बढ़े हुए उत्पादन के अनुपात में घटा दिया जाता है। प्रतएव, माधुनिक उद्योग की गति का पूरा म इस बात पर निर्भर करता है कि वह भमजीवी जन-संख्या के एक भाग को लगातार बेकार या पर्व-कार मजदूरों में बदलती जाती है। प्रशास्त्र का खिलापन .
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