पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७०१ प्रणाली पर पूंजी के संचय को और तेज कर देती है। इसलिये, पूंजी के संचय के साथ-साथ उत्पादन की विशिष्टतया पूंजीवादी प्रणाली विकसित होती जाती है और उत्सावन की पूंजीवादी प्रणाली के विकास के साथ-साथ पूंजी का संचय बढ़ता जाता है। ये दोनों पार्विक तत्व एक दूसरे को जो प्रोत्साहन देते रहते हैं, उसके मिम अनुपात में ये पूंजी की प्राविधिक संरचना में वह परिवर्तन पंगा कर देते हैं, जिससे उसका पस्थिर संघटक स्थिर संघटक की तुलना में सदा अधिकाधिक कम होता जाता है। प्रत्येक अलग-अलग पूंजी में उत्पादन के साधनों का बड़ा या छोटा संकेत्रण होता है, और उसके अनुसार उस पूंजी को छोटी या बड़ी मम-सेना से काम लेने का अधिकार प्राप्त होता है। प्रत्येक संचय नये संचय का साधन बन जाता है। पूंजी का काम करने वाले धन की राशि के बढ़ने के साथ-साथ संचय अलग-अलग पूंजीपतियों के हाथों में इस धन के संकेनण को बढ़ाता जाता है और उसके द्वारा बड़े पैमाने के उत्पादन का और पूंजीवादी उत्पादन की विशिष्ट पतियों के प्राचार का विस्तार करता जाता है। बहुत सी अलग-अलग पूंजियों के विकास के फलस्वल्म सामाजिक पूंजी का विकास होता है। अन्य बातों के समान रहते हुए अलग-अलग पूनियां और उनके साथ-साथ उत्पादन के साधनों का संकेन्द्रण उस अनुपात में बढ़ता है, जिस अनुपात में ये पूनियां सामाजिक पूंजी का प्रशेवभाजक भाग होती है। इसके साथ-साथ मूल पूंजियों के कुछ हिस्से अलग होकर नवी और स्वतंत्र पूणियों के रूप में काम करने लगते हैं। अन्य कारणों के अलावा पूंजीवादी परिवारों में होने वाला सम्पत्ति का बंटवारा भी इस क्रिया में बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है। इसलिये पूंजी के संचय के साथ-साथ पूंजीपतियों की संख्या में भी न्यूनाधिक वृद्धि होती जाती है। इस संकेनाल की, जो प्रत्यन म से संचय के प्राधार पर होता है, या कहना चाहिये कि वो वही बीच है, जो संचय है, को विशेषताएं होती हैं। पहली यह कि अन्य बातों के ज्यों की त्यों रहते हुए अलग-अलग पूंजीपतियों के हाथों में उत्पादन के सामाजिक साधनों का बढ़ता हुमा संकेलाल इस बात से सीमित होता है कि सामाजिक धन में कितनी वृद्धि हुई है। दूसरी बात यह है कि सामाजिक पूंजी का जो भाग उत्पादन के प्रत्येक अलग-अलग क्षेत्र में होता है, वह बहुत से पूंजीपतियों के बीच बंट जाता है, जो एक दूसरे से प्रतियोगिता करने वाले, मालों के स्वतंत्र उत्पादकों के रूप में एक दूसरे के मुकाबले में बड़े होते हैं। प्रतएव, संचय और उसके साथ-साथ होने वाला संकेनग न केवल बहुत से बिंदुओं . पर विलर जाते है, बल्कि नयी पूंजियों के निर्माण तथा पुरानी पूंजियों के उपविभाजन से प्रत्येक कार्यरत पूंजी की वृद्धि भी होती जाती है। इसलिये, संचय एक मोर तो उत्पादन के साधनों और मम से काम लेने के अधिकार के बढ़ते हुए संकेत्रण के रूप में सामने प्राता है, और, दूसरी ओर, वह बहुत सी अलग-अलग पूंजियों के पारस्परिक प्रतिकर्षण के रूप में प्रकट होता है। समाज की कुल पूंजी का बोइस तरह बहुत सी अलग-अलग पूंजियों में विभाजन हो जाता है, या उसके अंशों के बीच जो पारस्परिक प्रतिकर्षण की क्रिया चलती है, पारस्परिक पाकर्षण उसका प्रतिकार करता है। इस प्राकर्षण से हमारा पर्व उत्पादन के साधनों के मोर श्रम से काम लेने के अधिकार के उस साधारण संकेनाम से नहीं है, वो वही पीच होता है, जो संचय है। यह पहले से निर्मित पूणियों का संकेनन, उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मन्त, पूंजीपति द्वारा पूंजीपति का अपहरण, बहुत सी छोटी-छोटी पूंत्रियों का इनी-गिनी बड़ी पूंजियों में परिणत होना है। यह पिया पहली क्रिया से इस बात में भिन्न होती है कि इसके लिये केवल पहले से विद्यमान एवं . .
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