पूंजीवादी उत्पादन , . में, "इसके (मनाकों के) घट जाने के बाद भी न केवल यह सम्भव है कि पूंजी में वृद्धि होती बाये, बल्कि यह भी मुमकिन है कि उसमें पहले से ज्यादा तेजी के साथ वृद्धि होने लगे.. बड़े मुनाने वाली छोटी पूंजी की अपेक्षा छोटे मुनाने वाली बड़ी पूंची पाम तौर पर स्यावा तेवी से बढ़ती है" (उप० पु०, सन २, पृ० १८९)।इस सूरत में यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि प्रवेतन मन में जो कमी पाती है, उससे पूंजी के क्षेत्र के विस्तार में कोई बाधा नहीं पड़ती।- पौर था, दूसरी मोर, यह हो सकता है कि मन के नाम की वृद्धि के कारण संचय की गति पीनी पड़ जाये, क्योंकि उससे मना कमाने की प्राशा से पहले को पूंजी के संचय की प्रेरणा मिलती थी, वह कुंति हो जाती है। संचय की पर धीमी पड़ जाती है, परन्तु उसके धीमी पर जाने पर पर कम होने का मुख्य कारण खतम हो जाता है, अर्थात् पूंजी तवा शोषण योग्य प्रम- शाक्ति के बीच जो विषमता पंगा हो गयी थी, वह नहीं रहती। पूंजीवादी उत्पावन-क्रिया का यंत्र अस्थायी रूप से जिन बापामों को बड़ा करता है, उनको खुद ही मिटा देता है। मन का दाम कम होकर फिर उस स्तर पर मा जाता है, जो पूंजी के यात्म-विस्तार की प्रावश्यकताओं के अनुरूप होता है, चाहे वह स्तर मजबूरी में वृद्धि होने के पहले वाले सामान्य स्तर से नीचा हो, या ऊंचा हो, या उसके बराबर हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि पहली सूरत में श्रम-शक्ति प्रववा प्रमजीवी जन-संस्था की निरपेक्ष अपवा सानुपातिक वृद्धि की गति में कमी पा जाने के कारण पूंची मावश्यकता से अधिक नहीं हो जाती, बल्कि, इसके विपरीत, पूंजी के प्रत्यधिक हो जाने के कारण शोषण-योग्य भन-शक्ति अपर्याप्त हो जाती है। दूसरी सूरत में श्रम-शक्ति अपना श्रमजीवी जनसंख्या की निरपेन प्रयवा सानुपातिक वृद्धि की गति के बढ़ जाने के कारण पूंजी अपर्याप्त नहीं हो जाती, बल्कि, इसके विपरीत, पूंजी में बो तुलनात्मक कमी पा जाती है, उसके कारण शोषण-योग्य मम-शक्ति, या कहना चाहिये कि उसका बाम पावश्यकता से अधिक हो जाता है। पूंजी के संचय का यह निरपेन उतार-चढ़ाव ही शोषन-योग्य प्रम-शक्ति की कुल राशि के सापेन उतारचढाव के रूप में प्रतिविम्बित होता है और इसलिये मन-शक्ति की स्वतन्य गतिविधि का परिणाम सा लगता है। गणित की भाषा में कहा जाये, तो संचय की पर परतंत्र पर नहीं होती, बल्कि स्वतंत्र पर होती है, और मजदूरी की बर स्वतंत्र पर म होकर परतंत्र पर होती है। पुनांचे, पब पांचोगिक पर संकट की अवस्था में होता है, तब मालों के दामों में जो मान गिराव पाता है, यह मुद्रा के मूल्य के सर चढ़ जाने केस में अभिव्यक्त होता है, और समृद्धि की अवस्था में मालों के दामों में वो माम उभार माता है, यह मुद्रा के मूल्य के गिर पाने केस में अभिव्यक्त होता है। तथाकथित "Currency School" ("पला मत") के प्रशास्त्रियों ने इससे यह निष्कर्ष निकाला है कि जब राम ऊंचे होते हैं, तब बहुत कम मुद्रा परिचलन में होती है, और पब राम नीचे होते हैं, तब बात त्याचा मुद्रा चालू रहती है। इन लोगों के प्रमान तथा तथ्यों की प्रनत समास का मुकाबला केवल उन प्रशास्त्रियों के प्रमान पोर नासमझी से ही किया जा सकता है, वो संचय से सम्बंधित उपरोक्त घटनामों का यह पर्ष लगाते हैं कि समान में मजदूरों की संख्या कमी तो प्रावश्यकता से कम हो जाती है और पनी पावश्यकता से अधिक रह पाती है। . , . . 1 1 afert Karl Marx, “Zur Kritik der Politischen Oekonomie" (tet मास, 'अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास'), पृ. १६६ और उसके मागे के पृष्ठ।
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