पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६९२

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पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ६८९ के पुनरुत्पादन का एक प्रावस्यक अंग होता है। प्रतएव, पूंजी का संचय सर्वहारा की . . . . प्रामाणिक प्रशास्त्र में इस तव्य को ऐसी अच्छी तरह से समझा था कि, जैसा कि हम ऊपर भी बता चुके हैं, ऐम स्मिथ, रिकार्ग प्रादि संचय को और उत्पादक मजदूरों द्वारा अतिरिक्त पैदावार के समस्त पूंजीकृत भाग के उपभोग को, या उसके अतिरिक्त मखदूरों में रूपान्तरित कर दिये जाने को, एक चीन समझ बैठे थे। जान बैलेस मे १६९६ में ही यह कहा था कि "यदि किसी के पास एक लाख एकर समीन और एक लाख पौण मुद्रा तवा एक लाल डोर हों, पर मजदूर एक भी न हो, तो यह धनी व्यक्ति मजदूर के सिवा और क्या हो सकता है? और चूंकि मजदूरों के कारण ही भावनी बनी बनता है, इसलिये मजबूर संख्या में जितने अधिक होंगे, पनी भावमियों की संख्या भी उतनी ही बढ़ जायेगी ... गरीबों का मम पनियों की जानों का काम करता है। इसी प्रकार बर्वि रे मैदेवील ने भी प्रकारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह लिखा था कि "जहाँ सम्पत्ति भली भांति सुरक्षित है, वहां परोवों के बिना जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मुद्रा के बिना जीवन व्यतीत करना ज्यादा मासान होगा, क्योंकि गरीब न होंगे, तो काम कौन करेगा?.. जिस प्रकार उनको (गरीबों को) भूतों नहीं मरने देना चाहिये, उसी प्रकार उनको इतना अधिक भी नहीं दिया जाना चाहिये कि कुछ बचा सकें। यदि निम्नतम वर्ग का कोई व्यक्ति कभी-कभार प्रसाधारण परिणम करके और अपना पेट काटकर उस अवस्था से ऊपर उठने में कामयाब हो जाये, जिसमें वह तो उसके रास्ते में किसी को रुकावट नहीं गलनी चाहिये ; नहीं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक परिवार के लिये सबसे अधिक . Karl Marx, 340 go ! "A égalité d'oppression des masses, plus un pays a de proletaires et plus il est riche" [" यदि जनता के उत्पीड़न की मात्रा ज्यों की त्यों रहे, तो किसी देश में सर्वहारा की संख्या जितनी अधिक होगी, वह देश उतना ही अधिक arit ETT ") (Colins, “L'Economie Politique. Source des Révolutions et des Uto- pies pretendues Socialistes". Paris, 1857, ग्रंथ ३, पृ० ३३१) । हमारा “ सर्वहारा" मार्थिक दृष्टि से मजदूरी पर काम करने वाले उस मजदूर के सिवा और कोई नहीं है , जो पूंजी को पैदा करता है और उसमें वृद्धि करता है और जिसको, जब वह , पेक्वेयर के शब्दों में, "श्रीमान पूंजी' के पात्म-विस्तार की जरूरतों के लिये अनावश्यक हो जाता है, तो तुरन्त उठाकर सड़कों पर फेंक दिया जाता है। "पादिम जंगल का रोगी सर्वहारा" रोश्चेर की एक सुन्दर कल्पना है। पादिम जंगलवासी मादिम जंगल का मालिक होता है, और वह जंगल का अपनी सम्पत्ति के रूप में उसी आजादी के साथ इस्तेमाल करता है, जिस भाजादी के साथ वनमानुस उसका इस्तेमाल करता है। इसलिये उसे सर्वहारा कहना उचित नहीं है । उसे सर्वहारा उसी हालत में कहा जा सकता है, जब वह जंगल का शोषण न करता हो, बल्कि उल्टे जंगल उसका शोषण करता हो। जहां तक उसके स्वास्थ्य का सम्बंध है, उसकी स्थिति न केवल प्राधुनिक सर्वहारा से बेहतर होती है, बल्कि उपदंश पौर कंठमाला से रुग्न ऊपरी वर्गों से भी बेहतर होती है। लेकिन जाहिर है कि जब श्री विल्हेल्म रोश्चेर "पादिम जंगल" की चर्चा करते हैं, तब उनका मतलब असल में केवल लूनेबुर्ग की अपनी वनभूमि से होता है। .John Bellers, उप. पु., पृ० २। . . 1 . . 44-45